Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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सिद्धान्त व जैनागमों में व्यक्त विचार उन्हें एकांगी नजर आये हैं, फलतः उनका निर्णय स्पष्ट नहीं हो सकता क्योंकि सम्प्रदायगत विद्वेष एक दूसरेको हेय समझनेको बाध्य हैं । मेरा अपना विचार है कि यद्यपि लोकपरम्परा लोकाचारके द्वारा बिहारस्थित मध्यमपावाकी युगपुरुषको निर्वाणभूमिको अपने विश्वासका केन्द्र मानती आयी है सो हम उस लोक मंगलमयी लोकभावनाके समक्ष नत होनेको बाध्य हैं" हमारा इतिहास इसके विरुद्ध नहीं है । आपने 'जैन भारती' में एक निबंध लिखकर इस भ्रमको असामयिक, अतात्त्विक तथा अनैतिहासिक प्रमाणित करनेका प्रयास किया है । तात्पर्य यह कि यह मनीषी सत्य और आचार में सामंजस्य का समर्थक है ।
भँवरलालजी शिक्षित और दीक्षित दोनों ही हैं। पर शिक्षाको, जिस रूपमें आधुनिक युग द्वारा प्रमाणित किया जाता है, मात्र ५ वीं क्लास तककी है। इसे हम प्रारंभिक या प्राइमरी एजुकेशन कहा करते हैं । अंग्रेजी साहित्य में एक मुहावरा है द श्री आर्स (The three R's) लिखना, पढ़ना और हिसाब किताब ( रीडिंग, राइटिंग तथा रिथमेटिक) नितान्त अपर्याप्त । पर प्रतिभा स्कूल, कालेज व युनिवरसीटियों में निर्मित नहीं होती । वह जन्मजात होती है । इनके तो पेटमें ही दाढ़ी थी । पूर्वजन्म के पूत संस्कारोंने इस महान् व्यक्तित्वको देशकी समस्त भाषाएँ विस्तृत संसारकी मुक्त पाठशाला में सहज में ही, समय और अभ्यास
अभ्यस्त अध्यापकों द्वारा पढ़ा दी हैं । वस्तुतः प्रातिभज्ञान स्वयंभू होते हैं । प्रारब्ध और क्रियमाण कर्म जिन संस्कारों को जन्म देते हैं वे संचित होते रहते हैं । उसी संचयकी सिद्धि एक 'जीनियस' के रूप में प्रगट होती है। कुछ तो संस्कार, कुछ व्यक्तित्वकी अभिरुचि और कुछ वातावरण; सभी के पारस्परिक सहयोगकी परिणति एक ऐसे विवेकका सृजन करती है, जिसे हम मानसिक शक्ति कहते हैं । यही मानसिक शक्ति प्रतिभा के नामसे जानी जाती है। इसे प्रमाणपत्रको आवश्यकता नहीं होती । यह स्वयंसिद्ध प्रमाणपत्र होती है । संसारकी शिक्षण संस्थाएँ इनकी कायल होती हैं । विद्वत् समाज इनका सम्मान करता है । इस लिए कि प्रतिभा स्वयं शुद्धबुद्धज्ञानकी अधिष्ठात्री होती है । वह सामाजिक स्वीकृतिको अपेक्षा नहीं रखती, प्रत्युत स्वीकार ही स्वयं उसकी योग्यता स्वीकार करनेको बाध्य होता है । संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, अवधी, बंगला, गुजराती, राजस्थानी तथा हिन्दी आदि समस्त भाषाओं में पारंगत, प्राचीन ब्राह्मी, कुटिल आदि युगकी भाषाओं की सतत परिवर्तित लिपियोंकी वैज्ञानिक वर्णमालाके अद्भुत ज्ञानके अभ्यस्त श्री भँवरलालजी की प्रतिभाके कायल, प्रायः इनके सभी अन्तरंग विद्वान् मित्र हैं । मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला तथा ललित कलाओंकी आपमें परख है । आपकी अभिरुचि प्रायः भाषाशास्त्र, लिपि - विज्ञान में है । फलतः पुरातात्त्विक अनुसंधानकी ओर अग्रसर होने में आपका लिंग्विस्टिक एप्रोच पर्याप्त सहायक हुआ है । न जाने कितने ज्ञात अज्ञात ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ जो विशिष्ट विद्वानोंसे लौटकर आयीं, बीकानेरके अपने संग्रहालय में उपस्थित हैं । अनुसंधान और शोध हेतु अनेकानेक दुर्लभ चित्रकलाओंके नमूने, वस्तु व मूर्तिकलाकी प्रामाणिक प्रतिमाएँ, अमूल्य प्राचीन ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ आपने संग्रह की हैं, देखने मात्रसे इस नर-रत्नकी प्रकृतिका परिचय प्राप्त हो जाता है । पुरातत्त्व व नृतत्त्व - विज्ञानके अतिरिक्त इतिहास - शोधनको प्रकृतिने भी आपका झुकाव शिलालेखोंकी ओर उन्मुख किया है । प्रायः सभी शिलालेखों की, चाहे प्राचीनतम ही क्यों न हो, लिपि पढ़ने व उसका उचित अर्थ लगाने में आपको किंचित् मात्र भी कठिनाई नहीं पड़ती। अतीतके गर्भ में मानव अर्जित ज्ञानको संचित राशिको ढूंढ़ कर बाहर निकालनेमें आपने जो समय-समयपर सहायता की है, वह स्तुत्य है । प्राचीन संस्कृति व सभ्यताके विस्मृत तथ्योंके संग्रह करनेकी इनकी प्रबल आकांक्षाने इन्हें गहन अध्ययनकी अभिरुचि प्रदान की है । राजनीतिज्ञ, सामाजिक व सांस्कृतिक परिस्थितियोंकी समाजशास्त्रीय विश्लेषणात्मक चिन्तन-धाराने ही आपके अतीत और वर्तमानके बीच सामंजस्य संस्थापन में योगदान किया है।
९२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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