Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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विषयक वर्तमान प्रश्नोंको समझकर उनका निराकरण कर सकते हैं । जैनसंघ के समस्त मत ( पंथ ) जो लेखक आदरपूर्वक अपनाते हों, इस प्रकारके लेखक हमारेमें कितने हैं ? श्री नाहटाजी ऐसे ही लेखक हैं । यह इनकी अनोखी विशेषता है । इसके उपरान्त जैनेतर जनताके लिए भी आपने अगणित लेख लिखे हैं | आपसे लेख माँगते ही वह तुरन्त मिल जाता है। श्री नाहटाजी इस प्रकारसे एक सिद्धहस्त लेखक हैं ।
एक विद्याव्यसनीके अनुरूप ही आपका धर्ममय जीवन है । श्री नाहटाजीकी विद्या साधनाको श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए आपकी तन्दुरुस्ती और दीर्घजीवनकी हम कामना करते हैं । हमारी आन्तरिक यही शुभेच्छा है कि आप अपने सत्कार्य द्वारा विशेष यशस्वी बनें ।
नाहटाजी के सान्निध्य में
डॉ० सत्यनारायण स्वामी
[ १ ]
कौन व्यक्ति कितना प्रशंसनीय है, अभिनन्दनीय है, यह उसके उन शब्दोंसे जाना जा सकता है, जिनसे कि वह दूसरोंकी प्रशंसा करता है । यह बात मेरे मनमें उस समय घर कर गई थी, जब एक दिन श्री अगरचन्दजी नाहटाने वाराणसी में डॉक्टर वासुदेवशरण अग्रवालका परिचय देते हुए भावविभोर होकर मुझे बतलाया था - डॉक्टर साहब प्राचीन भारतीय ऋषिके नवीन संस्करण हैं । पाणिनिवादके प्रवर्तक डॉक्टर साहबकी अप्रतिम विद्वत्ता और उनके ऋषिकल्प जीवनपर भला किसे संदेह हो सकता है ? मैंने डॉक्टर साहबको प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया । मैंने देखा - कुशलक्षेम की सामान्य बातोंके बाद श्री नाहटाजी और अग्रवाल साहब अपनी साहित्यिक चर्चामें जुट गये थे। एक दूसरे को पाकर दोनों हर्षविह्वल थे, आनन्दका पार न था । और मेरा मन कह रहा था - ऋषि एक नहीं, दो हैं, डॉक्टर साहब भी और नाहटाजी भी । डॉक्टर साहब नाहटाजीकी साहित्यसेवाकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे । मेरे जीवन के धन्य क्षणों में वे क्षण चिरस्मरणीय रहेंगे । यह बात है दिनांक ९-३-१९६५ ई० की ।
[ २ ]
पूज्य नाहटाजी से मेरा परिचय बड़ी विचित्र स्थितिमें हुआ था । सन् १९६० में मैंने अपने बी० ए० के एक साथी श्री उदयलाल नागोरोके हाथमें एक बार अभयजैन ग्रन्थालयकी एक पुस्तक देखी । पुस्तक मेरे भी कामकी थी । श्री नागोरीने उसकी दूसरी प्रति उसी पुस्तकालय में होने की सूचना दी । | ने उस पुस्तकालयके सम्बन्ध में अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की तो उन्हें आश्चर्य हुआ- अरे, बीकानेर में रहकर अगरचन्दजी नाहटाका पुस्तकालय नहीं जानते ! और उनने स्वयं साथ चलकर मुझे वह 'ग्रन्थालय' बतलाया । नाहटाजी उस समय पुस्तकालयसे बाहर गए हुए थे । निराश होकर हमें लौटना पड़ा। नाहटाजीका नाम तो इससे पूर्व अनेक पत्र-पत्रिकाओं में देख चुका था । 'कल्याण' में प्रकाशित उनके आध्यात्मिक लेखोंसे भी मैं प्रभावित था। उनके दर्शन करनेकी लालसा बहुत दिनोंसे थी ही, अब मौका भी मिल
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३४९
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