Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री अभय जैन ग्रंथालयका २५ वर्षीय विकास
श्री भंवरलालजी नाहटा महापुरुषोंके सत्संग और सत्-साहित्यके अध्ययनसे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आता है, यह हमारे जीवनका भी अनुभूत तथ्य है। छठी कक्षामें प्रवेश होने के बाद ही हमारा पाठशालाका अध्ययन समाप्त हो गया। सौभाग्यसे उस अध्ययनकी कमीकी पूर्तिका एक सुअवसर हमें सम्बत् १९८४में प्राप्त हुआ। मेरे दादाजी दानमलजी व शंकरदानजी खरतरगच्छोय महान आचार्य जिनकृपाचंद्रसूरिजीके विशेष क्योंकि ये सूरिवर बीकानेरके ही विद्वान् व्यक्ति थे। जब उन्होंने सारे परिग्रहका त्याग कर साधु आचारके पालनका निश्चय किया, तो अपने उपाश्रय, ज्ञानभंडार एवं अन्य वस्तुओंकी देखभालका जिम्मा बोकानेरके जिन व्यक्तियोंपर छोड़ा था उनमें हमारे परिवारके सदस्य भी थे। बहुत वर्षोंसे कृपाचन्द्रसूरिजीका बीकानेर पधारना नहीं हुआ था, इसलिये बीकानेरकी जैन जनतामें उनके चातुर्मास कराने का बड़ा उत्साह था। फलौधीमें जब वे विराज रहे थे, बीकानेरका संघ उनसे विनती करनेके लिए गया, उनमें मेरे दादाजी भी थे। जैसलमेर ज्ञानभंडारका जीर्णोद्धार आदि कराने के बाद संवत् १९८४ के वसंतपंचमीके दिन सूरि-महाराज बीकानेर पधारे और हमारे ही कोटडी बड़े भवन)में विराजे । फलतः उनके सत्संगका लाभ खूब मिलने लगा। प्रतिदिन उनका व्याख्यान सुनते, वन्दना करते, उनके शिष्योंके साथ धार्मिक-चर्चा भी चलती रहती और उनके पास जो भी ग्रंथ व पत्र-पत्रिकाएँ आती उनको भी बहुत ही रुचिपूर्वक देखते व पढ़ते। हमारे साहित्यिक जीवनका प्रारंभ उसी सत्संग और सत्-साहित्यके स्वाध्यायसे होता है।
संवत् १९८४में जिनकृपाचन्द्रसूरिजीने भक्ति-गभित स्तुतियोंकी रचना प्रारम्भ की जो 'गहुँली-संग्रह' नामक ग्रंथमें उस समय छपी थी, अर्थात् तुकबन्दीरूप पद्यमय भजन-गीत बनानेका हमारा प्रयास प्रारम्भ हो गया था। एक बार 'जैनसाहित्य संशोधक' और 'आनन्दकाव्य महोदधि' मौक्तिक ७में प्रकाशित जैन-साहित्य महारथी श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाईका एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण निबंध 'कविवर समयसुन्दर' नामक पढ़नेको मिला तो मनमें यह स्फूर्ति व प्रेरणा हुई कि कविवर समयसुन्दर राजस्थानके एवं खरतरगच्छके कवि हुए हैं, उनके सम्बन्धमें बम्बई हाईकोर्ट के एक वकीलने गुजरातमें रहते हुए इतना खोजपूर्ण निबन्ध लिखा है, पर उससे तो बहुत अधिक नई जानकारी बीकानेरमें ही मिल सकती है, क्योंकि बीकानेरमें हमारी ही गवाड़ (मोहल्ला)में ओ खरतरगच्छके आचार्य शाखाका उपासरा है, वह समयसुन्दरजीके उपासरेके नामसे ही प्रसिद्ध है, और उसमें समयसुन्दरजी की शिष्य-परम्पराके यति चुनीलालजी भी उस समय रहते थे। बस इसी एक कविकी रचनाओं एवं जीवनीकी खोजके लिए हमने प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंको और ज्ञानभंडारोंको देखना प्रारंभ किया। संयोगसे स्थानीय 'महावीर जैनमंडल'के ग्रंथालय में कुछ हस्तलिखित प्रतियोंको देखते हुए एक गुटका ऐसा मिला, जिसमें समयसुन्दरजीकी अनेक छोटी-मोटी रचनाओंका महत्त्वपूर्ण संग्रह था, इससे हमारा उत्साह बहुत बढ़ गया क्योंकि पहली और साधारण-सी खोज में ही हमें बहुत बड़ी उपलब्धि मिल गयी। फिर तो बड़े उपासरेके ज्ञानभंडार एवं उपाध्याय जयचन्दजी और कृपाचन्द्रसूरिजीके ज्ञानभंडारकी एक-एक हस्तलिखित प्रतिको देख करके विवरणात्मक सूची बनायी गयी, जिससे अनेक नये कवियों एवं उनकी रचनाओंकी जानकारी मिली। उस समय हमें जो रचनायें विशेष पसन्द आतीं उनकी नकल भी हम अपने लिये करते रहते थे और कवियोंकी छोटी-से-छोटी रचनाओंका विवरण भी अपनी छोटी-छोटी नोटबुकोंमें करने लगे। इस तरह केवल एक कवि समयसुन्दरकी खोज करते हुए हमारा शोध-क्षेत्र विस्तृत होता चला गया।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३८९
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