Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आये थे, सारे रास्ते उनका स्वाध्याय चलता रहा । यह भी ध्यातव्य है कि नाहटाजीने पूरी यात्रा में भी अपनो समाई ( सामायिक स्वाध्याय ) में किसी प्रकारको कमी नहीं आने दी थी । जब भी थोड़ा खाली समय मिला कि वे अपने स्वाध्यायमें जुट जाते ।
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कलकत्ता में नाहटाजीकी स्वयंकी गद्दी है— नाहटा ब्रदर्स, जो जगमोहन मल्लिक लेनमें स्थित है । हम वहीं उतरे । नाहटाजीके भ्रातृज श्री भँवरलालजी नाहटा उस समय वहीं थे । उतरते ही, सभी से अत्यल्प पर अनौपचारिक कुशल क्षेमकी बातें करके नाहटाजी तो जुट गये अपनी डाक देखने में, जो पन्द्रह दिनों से वहाँ के पते पर Redirect होकर जमा हो रही थी। सभी पत्र खोलकर पढ़े, पत्रिकाओंके लेख आदि देखे और भँवरलालजीको उन पत्रोंके उत्तर लिखनेकी हिदायत देने लगे । साहित्य तो नाहटाजीके रग-रग में रमा है, कलकत्ते में उनसे विलग कैसे हो जाय ? देखने तो आये थे, व्यापार, और काम चल रहा है साहित्यका । मैं दंग था- भंवरलालजी से उन्होंने खाते और रोकड़ को बहियाँ नहीं मांगी, बल्कि वे रजिस्टर मांगे जिनमें बीकानेरसे भेजी हुई उनकी हस्तलिखित प्रतियोंकी भँवरलालजीने नकलें करके रखी थीं । अथवा कुछ ग्रन्थों का संपादन कर रखा था। भँवरलालजीने अपनी साहित्यिक गतिविधिका पूरा-पूरा विवरण दिया। वे तो साहित्य और नाहटाजी दोनोंके पुजारी हैं न ! नम्रता के मूर्तिमंत प्रतीक । नाहटाजीकी साहित्य-साधना में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है ।
कलकत्ता में नाहटाजीको अपने कामसे रुकना था परन्तु मुझे अपने कामसे चलना था क्योंकि छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं । इसलिए कलकत्ते से मुझे बिना घूमे-फिरे नाहटाजीसे विदा लेकर बीकानेर लौटना पड़ा ।
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नाहटाजो जिस दुनियाँ में रहते हैं उसकी वे कोई खबर नहीं रखते पर जो नई दुनियाँ ( राजस्थानी और जैन साहित्य का क्षेत्र ) उन्होंने बसाई है, उससे वे बेखवर नहीं हैं । यही कारण है कि नाहटाजी
कहते हैं - इस दुनियाँ में रेडियो और अखबारसे
तो जो होना है, वह क्या लाभ ? परन्तु
कभी कोई दैनिक पत्र नहीं पढ़ते और न ही रेडियो सुनते हैं । होगा ही । हम इसमें क्या हेर-फेर कर सकते हैं ? इसलिये दूसरी ओर, आप देखिये, उनके यहाँ आने वाली साहित्यिक साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और त्रैमासिक -त्रिकाओं में प्रकाशित सूचनाओं का उन्हें सर्वदा और अद्यतन ध्यान रहता है ।
नाहटाजीका काम भी साहित्य है, व्यसन भी साहित्य है और मनोरंजन भी साहित्य
।
नाम मूर्धन्य साहित्यकारों, साहित्य-संशोधकों में लिया जाता है परन्तु इस साहित्य को अपनाने ने कठोर पथ पर चलना पड़ा होगा, यह उनके दीर्घकालीन अभ्यासके अतिरिक्त और दुरूह से दुरूह प्राचीन शिलालेखों और हस्तलिखित प्रतियों को पढ़नेका उन्होंने स्व
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न तो इसमें उन्होंने किसीसे सहायता मांगी और न वे ऐसा चाहते ही थे । यही साधना थी । मनोयोगपूर्वक की गई साधना फल तो लायेगी ही । हां, इस बन ही जाता है। नाहटाजी अपने जीवनकी सफलतामें इन तीन वे पग-पग पर प्रभावित होते रहते हैं
पासके, जड़मति होत सुजान । सिल पर होत निसान ||
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