Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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मरुभूमिकी देन : अनुकरणीय विद्यापति नाहटाजी
श्री पारसकुमार सेठिया
पूज्यवर श्री अगरचन्दजी नाहटा जैसे मनीषीके व्यक्तित्व एवं उनके विचारों तथा उनके द्वारा रचित ग्रन्थोंकी गम्भीरताकी दृष्टिसे उनकी महानताके सम्बन्धमें कुछ लिखने या कहनेकी न तो मुझमें कोई क्षमता ही है और न अधिकार ही है। मेरे लिये आपके व्यक्तित्वके बारेमें कुछ कहना सूर्यको दीपक दिखाता है। आपका त्याग अतुलनीय है। आप उन कर्मठ व्यक्तियोंमें-से हैं, जिन्हें स्वयंसिद्ध कहा जाता है। आपने अथक परिश्रम करके अपने साहित्यिक जीवनका सर्वतोमुखी विकास किया है। प्रसन्नतापूर्वक साहित्यिक पुरुषार्थ करने में आप अत्यन्त कुशल हैं और यही कारण है कि राष्ट्र और समाज में आप अपना गौरवपूर्ण स्थान बनाने में सफल हुए है । आपकी साहित्यिक साधना और कर्मठता अनुकरणीय है। आपने अपने वित्त और श्रमका सदुपयोग साहित्यसेवाके लिए किया है। उसके लिए तो आप सर्वथा धन्यवादके पात्र हैं। साथ ही आपने एक विशाल पुस्तकालय स्थापित किया है। वह एक ऐसा कल्पवृक्ष है जो सदा फूलता-फलता रहेगा और जिसकी अमृतमयी छायामें ज्ञानाथियोंकी अनेक पीढ़ियाँ तृप्तिलाभ करती रहेंगी।
आप अहंकार-शून्य व्यक्ति है। आपकी सादगी और मिलनसारिता देखकर कौन कह सकता है कि आप ऐसे वैभव-सम्पन्न व्यक्ति हैं। आपको आडम्बरपूर्ण परिधानसे सख्त घृणा है। आप मिष्टभाषी एवं साथ ही मितभाषी भी हैं।
संस्मरण
श्री भंवरलालजी नाहटा बचपन
काकाजी अगरचंदजी मेरेसे छ: महीने बड़े और काकाजी मेघराजजी तीन वर्ष बड़े हैं। हम तीनोंका पढ़ना, खेलना, जीमना आदि सब एक साथ चलता था। कभी-कभी दोनों काकाजीके आपस में बोलचाल हो
मैं मेघराजजीके पक्ष में रह जाता था। थोड़ी देरका मनमुटाव हवा होते देर नहीं लगती और हम तीनोंमें परस्पर बड़ा प्रेम रहता। काकाजी मेघराजजी हमारे से आगे थे और हम दोनों एक ही क्लासमें पढ़ते थे। मेघराजजी चौथी क्लासमें शायद दो-तीन वर्ष जमे रहे तो हम दोनों तीसरी क्लासमें थे। फिर पाँचवीं क्लासमें हम लोग साथ रहे। दोनों काकाजी फिर स्कूल छोड़कर बोलपुर आ गये और बोलपुरमें बंगलाका सामान्य अभ्यास किया। उन दिनों जैन पाठशालाकी पढ़ाई सब स्कूलोंसे अच्छी थी। हम लोग अंग्रेजी, हिन्दी, भूगोल, संस्कृत, ज्योमेट्री और ऐलजेब्रा तक पढ़ने लगे थे। धार्मिक ज्ञान दोनों प्रतिक्रमण व जीवविचार पूरा कर नवतत्त्व, २५ बोल और पंचप्रतिक्रमण पढ़ने लगे थे। दोनों काकाजीके बंगाल आ जानेसे मैं अकेला पड़ गया और छठी क्लासमें थोड़े दिन पढ़ने के बाद मेरा भी स्कूल छुट गया। काकाजी दोनों जा बीकानेर आए तो उन्हें बंगला लिखते-पढ़ते देख मैं भी देखा-देखी बीकानेरमें ही बंगला लिखना-पढ़ना सीख गया। वाणिका अक्षर आदि भी सीखते देर न लगी । जैसे आजकल पढ़ाई ट्य टरपर ही प्राइमरीसे ठेठ तक निर्भर रहती है हमारी कभी नहीं रही । प्रायः हम ट्यूटरके पास नहीं पढ़े और न किताबों, पाटी या कापियों
३७६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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