Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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पास जा पहुंचा । उन्होंने बताया कि मारवाड़ी सम्मेलनने उन्हें आमन्त्रण दिया है और यहाँके एक-दो साहित्यकारोंको साथ लेकर आनेका अनुरोध किया है। बस मझे तैयार होनेमें क्या देर लगती ! निश्चित समय पर बम्बई पहुँचे।
मारवाड़ी सम्मेलनने अपना स्वर्णजयन्ती समारोह बड़े ही शानदार ढंगसे मनाया था। भारत भरसे मारवाड़ी लोग आये थे । समारोहके अन्तर्गत सम्मेलनकी अनेक सभाएं हुई, कवि-सम्मेलन हुआ, साहित्यिक गोष्ठियाँ हुई और सांस्कृतिक कार्यक्रमोंका आयोजन किया गया । सभी कार्य-क्रमोंमें उच्चकोटिके नेताओं, कार्यकर्ताओं, विद्वानों और कलाकारोंका जमघट लगा रहा । मैंने उससे पूर्व उतना सुन्दर समारोह कभी नहीं देखा था । आश्चर्यचकित हुआ मैं कभी समारोह को गतिविधियाँ देखता और कभी नाहटाजीको ही देखता रहता-कितना अनुग्रह रखते हैं ये मुझ पर ! वहाँकी साहित्यिक गोष्ठियोंमें तो नाहटाजीने भाग लिया हो, सम्मेलनने एक खुले मञ्च पर उन्हें राजस्थानी भाषा और साहित्य पर बोलनेके लिए भी विशेष रूपसे आमन्त्रित किया था।
तब पहली बार मुझे चौबीसों घण्टे नाहटाजीके साथ रहने का मौका मिला था । सम्मेलनके प्रायः सभी विशिष्ट व्यक्तियोंका परिचय करवाया । खाली समयमें वे वहाँके अपने इष्ट-मित्रोंके यहाँ मिलने जाते तो भी मुझे अपने साथ ही रखते थे। जैनमुनि श्री चित्रभानुजी, शतावधानी श्री धीरजलाल टोकरशी शाह, प्रो० रमणलाल शाह आदि अनेक सहृदय विद्वानों का आतिथ्य लाभ भी बम्बई प्रवास की एक विशिष्ट उपलब्धि रही।
नाहटाजीके साथ प्रवास का एक अन्य अवसर मुझे मार्च १९६५ में मिला । तब बनारसके संस्कृत विश्वविद्यालयमें अखिल भारतीय तन्त्र सम्मेलनका आयोजन किया गया था, जिसमें नाहटाजीको भी भाग लेने जाना था। उस सम्मेलनसे कुछ दिन पूर्व प्रयागमें हिन्दी साहित्य सम्मेलनका विशेष अधिवेशन भी सम्पन्न होनेको था । नाहटाजीने एक लम्बा कार्य-क्रम बनाया-लगभग एक माहका। इस बार फिर मेरी इच्छा हुई कि नाहटाजीके साथ जाकर ये शहर भी देखे जायं । नाहटाजीके सामने इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
__यात्रा प्रारम्भ हुई । बीकानेरसे दिल्ली पहुंचे। वहाँ हम एक जैन उपाश्रम में ठहरे थे, जो स्टेशनके पास ही था। वहाँसे नाहटाजोको एक अन्य उपाश्रयमें वहाँका हस्तलिखित ग्रन्थोंका संग्रह देखने जाना था । नाहटाजीके साथ मैं भी दूसरे दिन प्रातः वहाँ गया । नाहटाजीने मुझे वहीं रुकने को कहा और बताया कि थोड़ी देर बाद वहींसे खाना खाने चलेंगे। प्रतीक्षामें समय बड़ी देरसे कटता है। बारह बजे तक प्रतीक्षा की, पर नाहटाजी थे कि अपने आसनसे हिले तक नहीं, सारे रजिस्टरोंको जैसे आत्मसात् ही कर लेना चाहते थे। दो बजे तक अपने रामके तो पेटमें चहे कूदने लग गये थे । नाहटाजोके पास जाकर संकेत कियामैं थोड़ा बाजार में घूमकर आ रहा हूँ। मुझे लगा, नाहटाजो उस समय तक यह भूल ही गये थे कि मैं भी उनके साथ हूँ। मेरा संकेत समझकर वे खेद जताने लगे-घूम तो आओ ही, पर पहले खाना जरूर खा लेना। शामका खाना हम साथ ही खायेंगे । हुआ भी यही, नाहटाजी दिनभर बिना भूख-प्यासकी परवाह किये निरन्तर उस संग्रहके रजिस्टरों और पोथी-पत्रों को देखते रहे । दूसरे दिन वहाँ के कुछेक दर्शनीय स्थान देखे।
देहलीके बाद हम गये हाथरस । वहाँ नाहटाजीके भानजे श्री हजारीमल वांठिया रहते हैं। श्री
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३५३
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