Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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गया। दूसरे दिन दोपहर के समय फिर उनके ग्रन्थालय पहुँचा । वे कुछ लिख पढ़ रहे थे । उनके तनपर मात्र एक घोती थी और उसको भी उन्होंने लंगोटा बना रखा था। इसपर भी हालत यह कि पंखेके नोचे बैठे-बैठे नाहटाजी पसीने से तर हो रहे थे। इधर-उधर पुस्तकें बिखर रही थीं। मनने गवाही नहीं दी कि ये नाहटाजी हो हैं । सोचा होंगे उनके कोई कर्मचारी ! उन्हींसे पूछ बैठा नाहटाजी कब मिल सकेंगे ? उत्तर था - 'बोलो, हूँ ई ई 'अगरचन्दकठ-सूं पधारणों हुयों' आप-रो ? विस्मयको एकबारगी दबाकर मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और अपने आने का प्रयोजन बतलाने लगा। साथ ही साथ में उनके भव्य व्यक्तित्व के अंतरंग और बहिरंगका दर्शन लाभ भी लिये जा रहा था। मुझे विद्यार्थी जानकर उन्होंने अपना आवश्यक काम थोड़ी देर के लिए छोड़ दिया और देखते-देखते मेरी रुचि और उपयोगकी सामग्रीका मेरे आगे ढेर लगा दिया। उन्हें राजस्थानी में बोलते देख मैं भी उसी भाषा में बात करने लगा। अपनी अभिलषित पुस्तकको घर ले जाने की इच्छा हुई तो उनसे पुस्तकालयके नियम पूछे बोले- "आपणी घरू लाइब्रेरी है। दिनूर्गे छत्र सूं लेयर रात-री दस बजी ताई खुली राखा हां थे कर्णे ई आ सको हो। रंयी बात फोस-री सौ अहै- री फीस मात्र विद्या-प्रेम है।" फिर मुझे घरपर पढ़नेके लिए उन्होंने विना किसी झिझकके सीताराम चतुर्वेदी संपादित कालिदास- ग्रन्थावली जैसा बृहत्काय ग्रन्थ दे दिया । और यों, पहली ही भेंटमें पूज्य नाहटाजीने मुझे अपना लिया था। उनके सौजन्यने मुझे मंत्रमुग्ध कर लिया। कुछ दिन तो खाली समय में, दिन और रातको, नाहटाजी और अभय जैन ग्रंथालय का ही ध्यान बना रहता । इस बीच बी० ए० की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और गर्मी की छुट्टियाँ प्रारम्भ हो गयी थीं ।
[ ३ ]
छुट्टियोके दिनों में तो मैं प्रातः छः बजे ही नाहटाजो के ग्रंथालय में पहुँच जाया करता था। नाहटाजीका सामीप्य अब अधिकाधिक मिलने लगा । इस प्रकार मुझे उनकी दिनचर्याको निकटसे देखनेका सौभाग्य मिला। उन दिनों नाहटाजी प्रातः साढ़े पांच बजे उठते और शौचादिसे निवृत हो छः बजे पुस्तकालय पहुँच जाते । नाहटाजीका मकान और पुस्तकालय दोनों पास-पास ही हैं । लगभग साढ़े आठ बजे तक उनका सामायिक स्वाध्याय चलता, जिसमें अधिकांशत: डाकमें आई नयी पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओंका पठन ही प्रमुख था। तत्पश्चात् घर जाकर स्नान आदिसे निवृत्त हो वे देव-वंदनार्थ मंदिर जाते। उसी समय यदि कहीं किन्हीं विशिष्ट जैन साधु-साध्वियों का प्रवचन होता तो वहाँ जाते अन्यथा नाश्ते के रूपमें लगभग आधा सेर दूध लेकर नौ-साढ़े नौ बजे तक फिर पुस्तकालय में आते और अपने लेखन कार्य में जुट जाते । संदर्भ के लिए बीस-पचीस पुस्तकें तो उनके आसपास अवश्य ही रहती थीं । ग्यारह - साढ़े ग्यारह बजे वे खाना खाने जाते और बारह बजेके लगभग वे फिर पुस्तकालयमें ही होते । कोई शोधार्थी आया हुआ होता तो उसे उसके विषय संबंधी जानकारी और सामग्री सबसे पहले देकर फिरसे अपने काममें जुट जाते । हस्तलिपि अच्छी नहीं होनेसे कभी कोई कर्मचारी होता तो उसे बोल-बोलकर अपना लेखन कार्य कराते या फिर वे स्वयं ही लिख लिया करते थे। इसी समय में यदि कोई अध्ययन और लेखनसे भी अधिक बजनी काम हो जाता तो उसे भी निपटा आते, अन्यथा दो बजे तक निरन्तर उनका लेखन कार्य चलता रहता था। फिर वे बाहरसे आयी हुई डाक संभालते । दो बजे उनके चिट्ठियाँ लिखनेका समय होता था । चार बजे तक लिखे हुवे पत्रोंका ढेर लग जाता पाँच बजेके लगभग परसे आवाज आती "बाबूसा, जीम लो ।” नाहटाजीका नियम है कि वे प्रतिदिन सूर्यास्त के पूर्व ही भोजनादिसे निवृत्त हो जाते हैं । सूर्यास्त हुआ कि उनका खाना-पीना बंद, फिर चाहे कितनी ही भूख-प्यास शेष रह जाय। छह-साढ़े छह बजे वे पुस्तकालय में
३५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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