Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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शोध-निर्देशक श्री अगरचन्दजी नाहटा से भेंट डॉ० प्रताप सिंह राठौड़, एम० ए०, पी-एच० डी०
१० दिसम्बर, १९६६ की बात है । बिड़ला इन्स्टीट्यूट पिलानी में हिन्दी विभागके अन्तर्गत मेरा 'बगड़ावत' विषय डॉ० कन्हैयालालजी सहलके निर्देशन में पंजीकृत हो चुका था। डॉ० साहब के आदेशसे सामग्री-संकलन हेतु मुझे बीकानेरकी शोध यात्रा करनी पड़ी। पिलानीसे बस द्वारा मैं सीकर होकर शाम को तीन बजे बीकानेर पहुँचा । शार्दूल छात्रावासमें बिस्तर रखकर ४ बजे ताँगेसे नाहटोंकी गवाड़ पहुँचा । सड़क के पास ही हाथमें खाली लोटा लिये लघुशङ्कासे निवृत्त एक सज्जन खड़े थे । 'नमस्कार' करके मैंने पूछा, "जी ! अगरचन्द जी नाहटा को मकान कुण सो है ?" उत्तरमें पूछा गया - " आपरो कांई नाँव है ?" मैंने अपना संक्षिप्त परिचय कि मैं, प्रतापसिंह राठौर पिलानीसे आ रहा हूँ । अभिप्राय स्पष्ट करनेसे पूर्व ही सज्जन बोल उठे कि मैं ही अगरचन्द नाहटा हूँ, आइए । उनके साथ चलते हुए मैं सोचने लगा कि क्या यही नाहटा जी हैं ?
वे मुझे बैठक में छोडकर हाथ-मुँह धोकर शीघ्र लौटे । डॉ० साहबका कुशलक्षेम पूछा । फिर चाबियों का गुच्छा लेकर चल पड़े। पीछे-पीछे मैं भी चला। सामने एक मकानपर लिखा था - "श्री अभय जैन ग्रन्थालय' । बादमें ज्ञात हुआ कि नाहटाजीके भाई अभयराजजीकी स्मृतिमें बनवाया गया है । भीतर मसनद और गद्दा लगा था । नाहटाजीके आसन ग्रहण करते ही मैं भी बैठ गया ।
थोड़ी गंभीर मुद्रामें बैठे नाहटाजीने प्रश्न किया - " आपका शोध विषय क्या है ?" 'बगड़ावत'संक्षिप्त-सा उत्तर सुनते हो तपाक से बोले - " विषय आपने स्वयं चुना है या सहल जीने दिया है ?" दोनों ही बातें हैं - मैंने कहा ।
" खैर ! विषय तो अच्छा है किंतु 'बगड़ावत' लोकगाथाके विभिन्न रूपान्तर प्राप्य हैं। सभीका संकलन करना जरूरी है ।
""
आपने एक साथ ही इस सन्दर्भ में अनूप संस्कृत लाइब्रेरी ( बीकानेर ), भारतीय लोक कला मंडल ( उदयपुर ), संगीत नाटक अकादमी ( जोधपुर ), प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान ( उदयपुर ) और नानानाथ योगी आदिसे सामग्री संग्रह करने की सलाह दी । उन्होंने बगड़ावतोंके संदर्भ खोजने के लिए चौहान कुल - कल्पतरु, मारवाड़ी मर्दुमशुमारी रिपोर्ट १८९१ अनेक पत्रिकाओं और कोशोंकी भी सूची नोट करवा दी ।
सभी स्थानों, व्यक्तियों और पुस्तकों सम्बन्धी नाहटाजीकी विस्तृत जानकारी देखकर मैं चकित रह गया । प्रथम भेंटके समय ही शोधार्थीसे ऐसी मिलनसारिता, सहानुभूति और सहयोग - भावना उनकी व्यापक उदारताको परिचायक है ।
बड़े उत्साहसे शोध-सामग्री लाकर अध्येताके सामने रख देना, अध्ययन करते जाना और साथ ही लिपिकको लिखाते जाना एवं शोधार्थीको भी बीच-बीच में महत्त्वपूर्ण निर्देशन देते चलना नाहटाजी जैसे कर्मठ विद्वान्, उदारमना शोध - जिज्ञासु और गवेषकके बूतेकी ही बात है । साधारण आदमी ऐसे कार्य एक साथ सम्पन्न नहीं कर सकता । नाहटाजी जैसे स्पष्टवादी, तेज स्मरणशक्ति वाले, ज्ञानके अथाह भाण्डार भारतमें बिरले ही हैं । मुझे तो वे चलते-फिरते 'विशाल साहित्य- कोश' जान पड़े ।
चारों ओर सैकड़ों ग्रन्थ पड़े हैं और बीच में आसनस्थ सफल साधक श्री अगरचन्दजी नाहटा । साधना भी इतनी कठिन कि प्रातः ५ बजेसे सर्दीमें रात्रिके ११ बजे तक पढ़ते-लिखते जाना। बाहरसे आए हुए शोधार्थियों का मार्ग प्रशस्त करते जाना। उनकी अधिकतम सुख-सुविधाओं का खयाल रखना । ऐसे ३०२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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