Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
वाक्य पूर्ण होनेके पूर्व ही मेरी कल्पनाएँ खण्डित होती जा रही थीं। मैं किसी 'स्कालर' या 'रिसचर' का 'इमेज' बाँधे था -- अपटूडेट आफिस, एयरकंडिसंड वातावरण, गोदरेजके बहुमूल्य सोफे, सजावट से पूर्ण राजसी कमरा, चपरासियोंकी स्टार्चड ड्रेस, फोन की कई वेरायटीज, अतिशय व्यवस्थित पुस्तकालय, कीमती आलमारियों में संगृहीत पाण्डुलिपियाँ आदि-आदि न जाने कितनी ही कल्पनाएँ मेरे प्रोफेसरी मानस पटलपर अंकित थीं । किन्तु नाहटाजीको सादे गद्देपर तकियेके सहारे किताबों, कागजों, पत्रिकाओं, पाण्डुलिपियों आदिके मध्य खोया हुआ एक साधारण बीकानेरी पोशाक में 'सीदा-सादा' बैठा देखकर सारी कल्पनाएँ, भोगे यथार्थकी भांति, सामान्य धरातलपर उतर आई । मुझे लगा कि बड़े-बड़े 'रिसर्च इंस्टीट्यूट' की भव्य अट्टालिकाओं और उनकी सजावट, फर्नीचर आदिपर खर्चा करना व्यर्थ है । मानवमें यदि शोध - जिज्ञासा है तो वह साधारणसे कमरे में भी परितुष्ट हो सकती हैं ।
'आप कहाँसे पधारे हैं ?'
'जी, मैं पिलानीसे आ रहा हूँ ।'
'अच्छा-अच्छा ! तो डॉ० कन्हैयालालजी सहलके विद्यार्थी हैं । ठीक है, विषय क्या रखा है ?'
'राजस्थानी दोहा - साहित्य ।'
'ओहो, दोहा - साहित्य ।' कहकर नाहटाजीने कमर सीधी की और एक बार अपना चश्मा उतारकर नेत्र बन्द कर लिये - मानों मौन रूपमें कह रहे हों कि इस दोहा-साहित्यकी अगाधताका पार पाना बड़ा कठिन है ।
दोहोंके बारेमें कितने ही संदर्भ, परिवेश और कोण देख-सुनकर एक बार तो मैं हतप्रभ सा हो गया, परन्तु कृष्णका शिष्य होनेके कारण गीताकी कर्मभूमिपर मैं लड़ चुका था । नाहटाजी ने अपने ग्रंथालय के दोहों और ग्रंथोंकी जानकारी देनी प्रारंभ की। मैं थक गया, पर वे नहीं थके । विद्याव्यासंग और शोधमनीषीके ये ही तो गुण हैं । उन्होंने मुझे मात्र जानकारी ही नहीं दी, अपितु दोहोंकी प्रतिलिपि आदिको व्यवस्था भी करवाकर दी । मुझे इस शोधकार्य के 'फील्ड वर्क' में बड़े-बड़े कटु अनुभव हुए हैं, यहाँपर उन अनुभवोंको विपरीत पाकर मैं नाहटाजीकी ओर देखता ही रह गया ।
बीकानेरी पगड़ी और पोषाक, तेजस्वी और जिज्ञासु आँखें, गरिमामंडित चेहरा और मूंछें, मृदु स्वभाव और अतल ज्ञान, हाथोंकी मुद्राएँ और व्यस्तता - सब मिलकर अगरचन्दजीके व्यक्तित्वको एक ऐसा स्पर्श देते हैं, जो अपने आपमें विरल हैं। वर्षों पहले पिलानीमें देखे बीकानेरी प्रो० सूर्यकरण पारीककी घुघलीस्मृति रह-रहकर कौंधने लगी थी । सोचता हूँ, शोधके क्षेत्रमें 'बीकानेरी' संज्ञासे ईर्ष्या करने लगूं।
सैकड़ों शोधछात्रोंने नाहटाजीसे ज्योति ली है । इसका कारण, व्यापारी होते हुए भी आप निरन्तर विद्याव्यासंग रहे हैं । पाण्डुलिपियों और ग्रन्थोंका पारायण चलता ही रहता है। आपके लेखों और अभिभाषणोंसे आपकी विद्वत्ता और विश्लेषणकी कलाके स्पष्ट दर्शन होते हैं ।
लगभग चालीस वर्षोंसे आपका जो लेखन कार्य चल रहा है, उसके परिणामस्वरूप चालीसों ग्रन्थ और हजारों लेखादि प्रकाशित हुए हैं । इसमें हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज और सूची निर्माण जैसा महत्वपूर्ण कार्य शोधके क्षेत्रमें आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है । इसमें भी पाण्डुलिपियोंका संग्रह भी एक जटिल कार्य है । आपने श्रम, समय और धन लगाकर सम्पूर्ण भारतका पर्यटन किया है तथा अनेकानेक अनुपलब्ध पाण्डुलिपियोंका संग्रह, परिचय, एवं प्रकाशन किया है।
नियति के क्रम में ऐसे मानुष फल बहुत कम पकते । लाखों साहित्यजीवियोंकी शुभ भावनाएँ हैं कि 'तुम जीवो हजारों साल, सालके दिन हों लाख - हजार ।'
३१६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org