Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
ग्रन्थालयोंकी छानबीन कर चुका हूँ - पुस्तक नहीं मिल सकी । श्री नाहटाजीके 'ग्रन्थालय' में बताते हैं यह पुस्तक है । वैसे उनसे एक लम्बे अर्सेसे मिलने की साध भी है ।
यह भला आदमी इतना सुनते ही फौरन उलटे पैरों मेरे साथ चल पड़ा, अपने ग्रन्थालयको । स्मरण रहे - ग्रन्थालय आपके मकानके बहुत ही समीप है ।
ऊँची-ऊँची धोती, साधारण कोटिका बनियान, सिर नंगा, बाल अस्त-व्यस्त बिखरे हुए ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे कंघी के दर्शन इन्हें एक लंबे समय तक नहीं कराये गये हों । रंग साँवला, ललाट काफी चौड़ा, जिसपर जीवन के ठोस अनुभवकी रेखाएँ स्पष्ट प्रतीत हो रही थीं । चाल बड़ी तेज, मितभाषी ।
एकही झटके में 'ग्रन्थालय' का ताला खुला और हम दोनों उसकी ऊपरकी मंजिल में आ पहुँचे । मैंने देखा—यहाँ तो पुस्तकों का अंबार लगा पड़ा है। नीचे, ऊपर, दाएँ, बाएँ, अलमारियों में, यत्र-तत्र कोनों में, पुस्तकें ही पुस्तकें रखी पड़ी हैं । सज्जनने पूछा, 'आपको कौन-सी पुस्तक चाहिए ?' मैंने पुस्तकका नाम बताते हुए पूछा— श्रीनाहटाजी कब मिल सकते हैं ? आलमारीमेंसे मेरी इच्छित पुस्तक निकालकर मुझे देते हुए, उसने बहुत ही धीरेमें कहा – कहिए क्या काम है ? मैंने पुनः अपने गलेको जरा साफ करते हुए रूखाईसे उत्तर दिया- मुझे आपसे नहीं मिलना है । और न आपसे मेरा कोई कार्य ही बनना बनाना है । मुझे तो श्रीनाहटाजी से मिलना है । वे मुझे कब मिल सकते ? उस सज्जनने गम्भीर एवं बड़े सधे हुए स्वर में कहा -- कहिए भी आपको क्या काम है ?
।
अपने पत्रकार युग में मैं काफी कुछ घूमा-भटका हूँ काफी लोगोंसे मेरा मिलने-मिलाने का काम भी पड़ा है। मैंने सुन रखा था - श्रीनाहटाजीका सम्बन्ध कलकत्तासे है । आपका कारोबार, व्यवसाय आदि कलकत्ता, सिलचर आदि बड़े नगरों में भी फैला हुआ है । मैंने समझा, हो न हो यह व्यक्ति श्रीनाहटाजी का कोई निजी नोकर 'भईया ' ( पूर्वी लोगों को हमारे यहाँ राजस्थान में 'भईया' कहते हैं ) होगा । घरका भी यह काम काज करता होगा और ग्रन्थालयका भी ।
मैंने देखा, सज्जन जरा मुस्कराहट के साथ बड़ी ही मधुर वाणीमें कहने लगा, नाराज होने जैसी तो कोई बात नहीं है । आप अपना कार्य तो कहें। मैं तो सभी साहित्यकारोंका दास ही हूँ और आपका भी ' ।
मैं उछल पड़ा । मैं चाहता था - ऐसे 'विनम्र, सादगी के अवतार साहित्य- तपस्वीकी पावन चरण धूलिसे अपने आपको पवित्र कर सकूँ — उन्होंने फौरन मुझे दोनों हाथों में बाँधकर छाती से लगा लिया । मेरा कंठ अवरुद्ध हो चला । मैं केवल इतना ही कह सका - मां-भारती आज धन्य है; आप जैसे वरिष्ठ पुत्रको पाकर । आप सचमुच भारतीय साहित्य जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र हैं । आपको पाकर आज में अपना जीवन धन्य समझता हूँ - श्रद्धेयवर, मेरा नमस्कार स्वीकार करें ।
[ दो ]
सम्भवतः यह घटना सन् १९५१-५२ की रही हो — हमलोग ( मैं और श्री नाहटाजी ) बैठे साहित्यिक चर्चा कर रहे थे । पाठकों को यह तो ज्ञात ही होगा, कि श्री नाहटाजीका अपना एक निजी पुस्तकालय है । पुस्तकालयका नाम है— श्री अभय जैन ग्रन्थालय ।
एक पुस्तक-विक्रेताका एजेण्ट उस दिन आ पहुँचा पुस्तकालय में और लगा दिखाने पुस्तकें । पुस्तकें अधिकतर कहानियाँ, उपन्यास, और नाटक आदिको लेकर ही थीं ।
एजेण्ट एक-एक पुस्तक अपने बैगमेंसे निकालता और उसकी थोड़ेमें समीक्षा भी करता जाता । वह जितनी बार भी अपनी ओरसे पुस्तककी उपयोगिताको लेकर प्रशंसाके पुल बाँधता, श्रीनाहटा अपना सिर हिलाकर अस्वीकृति का सा संकेत करते और मैं सिर हिलाकर स्वीकृतिका संकेत देता उसे ।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : ३३९
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org