Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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अनोखी सूझ-बूझ, कर्तव्य परायणता, सादगी आदि सात्विक गुण जैसे इन्हें विरासत में मिले हों - इनके दैनिक जीवनमें एक रस होकर, घुल-मिलकर अभिन्न अंग बन गये हों ।
श्री अगरचन्द नाहटा भारतके एक बहुत बड़े शोध-शास्त्री हैं । शोधका ऐसा कोई भी अंग नहीं कहा जा सकता, जिसपर इस मूकसाधक, प्रकाण्ड - पण्डितने अपनी लेखनी न उठाई हो ।
भारतके हर कोने-कोनेसे कई शोधके विद्यार्थी श्रीनाहटाजीकी प्रतिभाका लाभ उठा चुके हैं । श्रीअगरचन्दजी, राजस्थानी, प्राकृत, अपभ्रंश और गुजराती भाषाके तो प्रकाण्ड-पण्डित हैं ही - आपका ज्ञान जैनधर्म, भारतीय-दर्शन, इतिहास, पुरातत्त्व, मूर्तिकला और चित्रकला आदि पर भी गहन और अनूठा है । भारतकी ऐसी शायद ही कोई साहित्यिक संस्था रहीं होगी, जिसका सीधा सम्पर्क श्रीनाहटाजीसे न रहा हो । इनकी प्रतिभाका सांगोपांग आभास इनकी बहुमुखी सेवाओंकी प्रचुरतासे मिलता है ।
व्यक्तिगत मान-प्रतिष्ठासे कोसों दूर, दोषान्वेषण अथवा छिद्रान्वेषणसे परे, सरस्वती के इस लाडले पुत्रको कभी भी अपने पुस्तकालय में अध्ययनरत और लेखन कार्यमें रत देखा जा सकता है । लाखों नहीं, तो हजारों व्यक्ति आपके निकट - सम्पर्क में आये होंगे । फिर भी हमारा संन्निकटका या व्यक्तिगत सम्पर्क ऐसा कुछ रहा है— कुछ संस्मृतियाँ ऐसी रही हैं, जो किसी भी हालत में भुलाई नहीं जा सकतीं ।
साहित्यकारका जीवन एक समुद्रकी तरह गम्भीर और गंगाके समान पावनप्रवाहमय रहता है । समुद्रकी गहराई और उसके पानीको लेकर यदि कोई उसका माप-तोल करना चाहे, तो भले ही किसी साहित्यकार के जीवनकी व्याख्या करनेमें वह सफल मनोरथ हो सकता है । हम तो यहाँ श्रीनाहटाजीके जीवनका पक्ष, 'सादगी' को लेकर ही कुछ झाँकियाँ प्रस्तुत करना चाहेंगे । और यह सत्य भी है -- Simplicity is next to godliness —-श्री नाहटाजीके जीवन में सादगी और उच्च-विचार [ Simple Living and High Thinking. ] जैसे उनके जीवनके अभिन्न अंग बन गये हों । सादगी के तो मानों श्री नाहटाजी प्रतीक ही बन गये हों ।
[ एक ]
वैसे तो श्री नाहटाजीके निबन्धों को पढ़ने का सुअवसर मुझे सन् १९३६ से मिलता रहा है । जैसलमेर भी आप सन् १९४२ में आये; लेकिन आपसे साक्षात्कार होनेका शुभ अवसर मुझे सन् १९५० में बीकानेर में मिला। उन दिनों मैं लोक-साहित्यके विषयको लेकर एक पुस्तक लिखने की योजनामें था और मुझे तद्विषयक पुस्तकों की बड़ी ही आवश्यकता थी। काफी कुछ इधर-उधर के पुस्तकालयोंकी खोज-बीन करने के उपरान्त किसी भले आदमीसे ज्ञात हो सका कि ये पुस्तकें तो श्री नाहटाजीके यहाँ 'श्री अभय जैन ग्रन्थालय' में आपको बड़ी आसानी से मिल सकती हैं । फिर भला क्या था— वैसे भी आपके दर्शन तो करने हो थे, मैं उस दिन सायंकाल चल पड़ा, आपसे मिलनेके लिये ।
आपके मोहल्ले में• जिस समय पहुँचा उस समय लगभग छः बजनेको थे । मैंने यहाँ पहुँचकर एक सज्जन से पूछा, 'श्री नाहटाजीका मकान कहाँ है ?' वह सज्जन एक लकड़ीके पाटेपर बैठा हुआ था । यहींसे बैठे-बैठे उसने इशारा करते हुए बताया - वह रही लाल पत्थरवाली बड़ी-सी हवेली । मैं उस निर्देशित हवेली के पास पहुँचा ही था कि मैंने देखा वहाँ एक व्यक्ति खड़ा है ।
मैंने उनसे पूछा -- कष्ट तो आपको होगा, लेकिन मैं क्षमा चाहता हूँ, 'क्या आप मुझे श्रीनाहटाजीका मान बता सकते हैं ?' सज्जनने बड़ी गम्भीर मुद्रा में पूछा, ' आपको उनसे कोई विशेष कार्य ?' मैंने फौरन छूटते ही कहा, इन दिनों कुछ लिखनेकी झक सवार हो चली है । एक पुस्तककी आवश्यकता है। काफी कुछ ३३८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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