Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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देखा कि चारों ओर ग्रंथोंका ढेर लगा था और उनके बीच में बैठे श्री नाहटाजी अपने अध्ययनमें लीन थे । मैं उनकी निष्ठा और एकाग्रता देखकर दंग रह गया। सारा बीकानेर सुखसे सो रहा था परन्तु वह साहित्यतपस्वी अपनी साधना में लीन था । उसकी बिरादरीके अन्य उद्योगपति भी ऐसे समय में ऐसी ही साधनामें तल्लीन रहते होंगे परन्तु उनके सामने उनके व्यापारिक बही चोपड़ोंका ढेर रहता होगा न कि हस्त- प्रतियोंका पहाड़ ।
मैंने श्री नाहटाजीके कार्य में कोई बाधा नहीं डाली और सोनेके लिए अपने कपड़े ठीक करने लगा । जब श्री नाहटाजीने ग्रन्थका प्रसंग पूरा पढ़ लिया तो वे भी सोनेके लिए अपनी हवेली चले गए । उपर्युक्त प्रसंग में श्री नाहटाजीकी साहित्यिक-सिद्धिका रहस्य स्पष्ट समझा जा सकता है— जो चलता रहता है, वही अमृतको प्राप्त करता है ।
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काफी वर्षों पहले मैंने पी-एच० डी० हेतु शोध-ग्रंथ लिखनेकी इच्छा की थी परन्तु वह कार्य यों ही छोड़ दिया । फिर भी विविध विषयोंपर लिखनेका कार्य जारी रहा। जब रामगढ़ के रूइया कालेजमें आ गया तो डॉ० कन्हैयालालजी सहलने मुझे जगाया कि पी-एच० डी० विषयक कार्य पूरा कर डालना उचित ही है । मैं तैयार हो गया यह चर्चा सन् १९६३ की है ।
मैंने राजस्थानी कहानियोंका विशेष अध्ययन किया था, अतः 'बाल - साहित्य' पर शोधग्रन्थ तैयार करनेका निश्चय किया और सामग्री संकलन हेतु मैं श्री नाहटाजीके पास बीकानेर आया । मुझे पता था राजस्थानी- बातोंसे सम्बन्धित हस्तप्रतियोंका संग्रह बीकानेर में लगभग पूरा ही प्राप्त हो सकता । श्री अभय जैन ग्रन्थालय में अधिकांश बातें नकल करवाकर श्री नाहटाजी कभी से सुरक्षित कर चुके थे । यह सम्पूर्ण सामग्री मेरे सामने थी परन्तु मैं बीकानेर अधिक समय तक ठहरनेकी स्थितिमें नहीं था । काम लम्बा था और रामगढ़ में रहकर ही पूरा किया जा सकता था। मैंने श्री नाहटाजीसे सम्पूर्ण सामग्री अपने साथ ले जानेके लिए इजाजत माँगी तो वे असमंजसमें पड़ेसे प्रतीत हुए क्योंकि वे स्वयं अपने लेखोंमें उसका प्रसंगानुसार प्रयोग करते ही रहते थे। मैंने उनका असमंजस दूर करते हुए कहा - " किसी भी साहित्य - सामग्री पर उस व्यक्तिका सबसे ज्यादा हक है, जो उसका अध्ययन करना चाहता है । अब आप स्वयं निर्णय कर लीजिए कि आपके ग्रन्थागारमें संचित राजस्थानी बातों सम्बन्धी सम्पूर्ण सामग्री आपकी है या मेरी ?"
श्री नाहटाजी कुछ हँसे और तत्काल बोले - " सारी सामग्री आपकी है, आप इच्छानुसार सार्धं ले पधारो ।" मैं अपने कामकी सम्पूर्ण सामग्री साथ ले आया ।
इस प्रसंगसे प्रकट है कि श्री नाहटाजी जिन हस्तप्रतियोंको अपने प्राणोंसे भी ज्यादा प्यार करते हैं, उन्हें वे उपयोगके लिए सुपात्रको देनेमें कभी संकोच नहीं करते परन्तु उन्हें यह विश्वास हो जाना चाहिए कि सामग्री लेनेवाला व्यक्ति वस्तुतः विद्यार्थी है। श्री नाहटाजीकी इस उदारतासे न जाने कितने शोधकर्ताविद्वान् लाभान्वित हुए हैं और अब भी हो रहे हैं ।
आगे जाकर उपर्युक्त प्रसंगने यहाँ तक विस्तार प्राप्त किया कि जब मैं सन् १९६७ में श्री शार्दूल संस्कृत विद्यापीठ, बीकानेर में आ गया तो श्री नाहटाजीने अपने घरपर यहाँतक व्यवस्था कर दी कि उनकी अनुपस्थिति में भी जब कभी मैं माँगूँ तो पुस्तकालयकी चाबी तत्काल मुझे दे दी जावे और वहाँकी पुस्तकोंका 'इच्छानुसार उपयोग करता रहूँ ।
मैं
१६४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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