Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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स्थितियोंमें उनके लिए साहित्यिक गम्भीरता शोधीकरण ही है, जिसमें शंकाएँ वैज्ञानिक पद्धतिसे उठाई गई हैं और उनका समाधान आधिकारिक वचोभंगीमें उपस्थित किया गया है। अतएव, उनका शोधकार्य साहित्यके विभिन्न अज्ञात दृष्टिकोणोंके ऐक्य-प्रतिपादनका रमणीय विन्यास ही माना जायगा । शोधका काव्यसंवलित विन्यास सर्वप्रथम श्री नाहटाजीके ही कार्यों में मिलता है । शोधकार्यको व्यापक विस्तार देनेका श्रेय उनको ही है। उन्होंने शोधपरक कृतियोंकी विपुल समीक्षा की है, जिसकी संख्या अपरिमेय है और जिनका महत्व स्वयं उनके लिए जीवन-दर्शनके समान है। निस्संशय, उनका समग्र जीवन शोधका ही पर्याय बन गया है । इसलिए, उनके शोध-कार्योके मूल्यका सही-सही अंकन-प्रत्यंकन एवं विश्लेषण-व्यालोचन जबतक नहीं होता, तबतक हम उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करने में पश्चात्पद ही रहेंगे। क्योंकि, वे जीवनभर जिन शोध-आकांछाओंको पालते-सहलाते रहे हैं, उनसे हिन्दी-साहित्यके इतिहासके संरचनात्मक संघटन तथा उसके पुनर्विचारकी स्थिति उत्पन्न हो गई है।
प्रत्येक शोधकर्ता जहाँ समसामयिक इतिहासका प्रत्यक्षद्रष्टा होता है, वहीं अतीतके इतिहासका विश्लेषक भी। शोधकर्ताको अतीत और वर्तमानके सीमान्तोंकी विषम भूमिपर चलना पड़ता है। इस प्रायोदृष्कर कार्यमें श्री नाहटाजीकी कसौटी अपनी है तथा तर्क है उनका साधन । फिर भी, अपनी उपपत्तियोंको सिद्ध करनेके लिए उन्होंने तथ्योंके 'सुविधाजनक आकलन'को न तो निकष बनाया है और न ही प्रामाणिकताका ही सम्फेट या गर्वोद्घोष किया है। अपनी उपलब्धियोंको प्रतिमान माननेकी विवशता भी उनमें नहीं है।
शोधके क्षेत्रमें प्रश्न अनेक हैं, समस्याएँ विविध हैं। सभी प्रश्नोंके उत्तर नहीं दिये जा सकते और न प्रत्येक समस्याका समाधान ही अन्तिम समाधान हुआ करता है । फिर भी, श्री नाहटाजीके समाधान निरर्थक नही हैं और शोध-जगतके अवबोधको उद्ग्रीव बनाये रखना भी अपने-आपमें बहुत बड़ा काम है । फलतः, अपने जीवनके एकमात्र व्रत शोधानुष्ठानके प्रति एकनिष्ठताको दृष्टिसे शोधपुरुष श्री नाहटाजी वरेण्य तो हैं ही, अभिनन्दनीय भी हैं ।
जैन साहित्य के प्रकांड विद्वान नाहटाजी
___श्री कस्तूरमल बाठिया गेहआ रंग, लंबा कद, छरहरा बदन, ऊँची किन्तु उलझी हुई गंगाजमुनी मूंछे, कमरमें ढीली धोती और उसकी भी लांग आधी खुली, वही या तो बदनपर लिपटी हुई अथवा गंजी पहने हुए, आँखोंपर चश्मा लगाकर हेसियनके बोरे या चटाईपर बैठे हुए, जिसकी मुखमुद्रा गंभीर और शान्त है, ऐसे साहित्य-साधकको आप श्री अभय जैन ग्रंथालय बीकानेरमें दिनमें प्रायः सोलह घंटे बैठे पायेंगे। वे घरसे बाहर बहुत कम जाते हैं। यदि कामसे कहीं जाना हआ तो बदनपर बंगाली कुर्ता, सिरपर मारवाड़ी पगड़ी, जिसके पेच अस्त-व्यस्त हैं । कन्धेपर सफेद दुपट्टा, पैरोंमें चर्मरहित जूते । यह है उनकी बाहरी वेशभूषा ।
अपरिचित व्यक्ति उन्हें देखे तो सहसा विश्वास नहीं होता कि यह सीधा-सादा दीखनेवाला व्यक्ति विद्वान भी है और धनवान भी। उनसे प्रत्यक्ष बात किये या संपर्क में आये बिना पता नहीं चलेगा कि वह इतने विद्वान हैं कि उनकी ख्याति केवल राजस्थानी जगत्में ही नहीं, भारतके हिन्दी साहित्य जगत में भी है। हिन्दी शोध जगत्के तो वह चमकते हुए नक्षत्र है। नाहटाजीकी शिक्षा नाममात्र याने हिन्दीके पांचवें दर्जे तक हुई। स्कूली शिक्षा उन्हें भले ही
व्यक्तित्व, कृतित्व और संस्मरण : १८९
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