Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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जिसे आदमी मन में बड़ा मान लेता है उसके बारे में सार्वजनिक रूपसे कुछ कहते हुए संकोच करता
है । इसे मेरा सौभाग्य समझिये चाहे स्वभाव, जीवन के सभी क्षेत्रों में मुझे ऐसे व्यक्ति रत्नों का सांनिध्य प्राप्त होता रहा है, जिन्होंने अनायास ही मुझे अभिभूत कर दिया है परन्तु मैंने यथासम्भव अपनी यह भावना शीलवश कभी उनपर प्रकट नहीं की क्योंकि कई बार आदर को व्यक्त कर देना, सो भी आदरणीय के सामने, एक प्रकार की वाचालता सी प्रतीत होती है । नाहटाजी के प्रथम साक्षात्कार के समय मानस में आन्दोलित विपुल भावोमियां तो शांत हो गई परन्तु उनकी अयाचित कृपा दृष्टि से मेरे नेत्र सजल हो उठे । नाहटाजी के सांनिध्य में रहकर मैंने कविवर मालदेवकी दशाधिक रचनाओं की दुर्लभ प्राचीन पांड - लिपियों से प्रतिलिपियाँ और काव्य में व्यक्त विचारों को भलीभाँति समझता रहा। बीकानेर नरेश के अनूप संस्कृत पुस्तकालय और अन्यान्य स्थानों से सामग्री संचयनका कार्य उन्हीं की देख-रेख में सम्पादित हुआ । उनकी निस्पृह निरुपाधिक एकान्त साधना प्रातः से सायंतक श्री अभय जैन ग्रंथालय में विगत चालीस वर्षोंसे अव्याहत गति से सतत प्रवाहमान है ।
अभी तक नाहटाजी सुयोग्य मार्ग-दर्शन में सैकड़ों शोध छात्रोंने प्राचीन इतिहास और साहित्यकी विभिन्न विधाओं में शोध कार्य द्वारा विश्वविद्यालयोंसे डाक्टरेटकी उपलब्धियाँ प्राप्त कर चुके हैं । राजस्थानकी विशिष्ट साहित्यिक पत्रिकाओंका उन्होंने वर्षों योग्यता पूर्वक सम्पादन किया है और भारतकी प्रसिद्ध पत्रिकाओं में उनके तीन हजारसे भी अधिक विचार पूर्ण लेख प्रकाशित हो चुके हैं ।
नाहटाजी के सम्पर्क में बीते वे दिन आज बलात् स्मरण हो रहे हैं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहारउड़ीसा, बंगाल, आसाम आदि प्रान्तोंमें फैले हुए व्यापारिक सम्बन्धोंकी चिन्ताओंसे तटस्थ वीतरागी नाहटाजी भी भारती के भांडारको नितनूतन रत्नोंसे आपूरित करनेके लिए कृतसंकल्प है। अनवरत अध्ययनके कारण उनकी नेत्र ज्योति क्षीण हो रही है परन्तु उनको इसकी चिन्ता कहाँ । मनस्वी शरीरकी सीमाओं में कब बँध सके हैं ? उन्हें तो जीवनके एक-एक क्षणको परहित हेतु अविकल भावसे उत्सर्ग करना है
काछ हठा, कर बरसणा, मन चंगा मुख मिट्ट, रण सूरा जग वल्लभा, सो मैं बिरला दिट्ठ, उक्तिके
नाहटाजी इस साकार स्वरूप है । परमचरित्रवान्, मोहवासना और भौतिक एषणाओंने उन्हें कभी पराभूत नहीं किया । विवेक ही उनका पथ-प्रदर्शन है और मधुर भाषण सहज प्रकृति । ' रणशूर' तो हैं ही। अनेक साहित्यिक विधाओंमें उनकी एक साथ सहज गति और गहरी पैठ देखकर 'जगवल्लभ' की उक्ति भी सही चरितार्थ होती है । श्री नाहटाजी की मानस-सीपी अभी और कृतियोंके सावदार मोती देगी -- उनके भावोंके और सरसिज फूलेंगे विचारोंका अभी और मकरन्द निर्धारित होगा, ज्ञानकणोंका अभी और पराग विकीर्ण होगा -- यह हमारा विश्वास है ।
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मैं नाटाजी के अभिनन्दनको मां भारतीका अभिनन्दन मानता हूँ और उनके दीर्घ जीवनकी कामना करता हुआ अपने विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूँ
वन्दनाके उन स्वरों में एक स्वर मेरा मिला लो !
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व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २५५
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