Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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हूँ तो अपने विशाल ग्रन्थागारमें आसन पर जमे हुए किसी प्राचीन ग्रन्थके जीर्ण पत्र उलटते-पलटते नाहटाजी मुझे दिखाई देते हैं ।
प्रभुसे मैं तो यही विनय कर सकता हूँ कि ऐसे तपस्वी विद्वान्को वे चिरकाल तक हमारे बीच रखें और उनकी आशीर्वाद रूप छाँह हम पर बनी रहे ।
नाहटा-बन्धु : मेरी दृष्टि में
महोपाध्याय श्री विनयसागर
खरतरगच्छके अनन्य उपासक, धर्मप्रेमी, राजस्थानी-हिन्दी और जैन-साहित्यके कोशके समान भाण्डागारिक, व्यापारी होनेपर भी सहस्राधिक लेखों के लेखक, प्राचीन लिपियोंके विशेषज्ञ, अनुसन्धित्सूओंके प्रेरक एवं शिक्षक, श्रेष्ठिवर्य श्री अगरचन्दजी नाहटा और श्री भंवरलालजी नाहटाका मेरे जीवनसे बहुत ही निकटतम और घनिष्ठतम सम्बन्ध रहा है। वि० सं० २००० से आज तक अर्थात् २०२८ तक यह सम्पर्क अविच्छिन्न रूपसे वद्धित रहा है। हालांकि, इस मध्यमें नामलिप्सा, अर्थ आदि कतिपय प्रसंगोंको लेकर कई बार हमारे आपसी मतभेद भी हुए हैं, ऐसा होनेपर भी आज तक हमारे बीच में आन्तरिक-प्रेम, साहित्य-साधना और गच्छ सेवामें तनिक भी अन्तर नहीं आने पाया है।
२९ वर्षों के इस दीर्घ-सम्पर्कपर विचार करता हूँ तो, मेरे हृदय-पटल पर मुनि जीवन और गार्हस्थ्यजीवनके संस्मरण उभर आते हैं। मैंने बाल्यावस्थामें, वि० सं० १९९६ में खरतरगच्छालङ्कार आचार्यदेव श्रीजिनमणिसागर सूरिजी महाराजके पास भागवती दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षाके चौथे वर्ष मैं अपने पूज्य गुरुजीके साथ बीकानेर आया था । सम्भवतः वहीं सर्वप्रथम नाहटा-बन्धुओंसे मेरा परिचय हुआ था नेरमें रहते हए नाहटा-बन्धुओंने मेरे जीवनको किस प्रकार मोड़ दिया-इस बातका परिचय मैंने प्रतिष्ठालेख-संग्रह प्रथम भागमें 'अपनी बात' लिखते हए लिखा था
"वि० सं० २००० का चातुर्मास मेरे शिरच्छत्र पूज्यश्वर आचार्यदेव श्री जिनमणिसागर सूरिजी महाराजका बीकानेरमें श्री नाहटाजीके शुभ प्रासाद 'शुभविलास' में हुआ। उस समय मेरी अवस्था १३ वर्षकी थी । पूज्यश्वर गुरुदेवने अध्ययनके लिये व्यवस्था कर रखी थी। शिक्षक व्याकरण-काव्य आदिका अभ्यास करवाता था । उस समय मैं सिद्धान्त कौमुदीका दूसरा खण्ड पढ़ रहा था, पर बाल्यावस्थाके कारण अध्ययनमें तनिक भी रुचि नहीं थी और व्याकरण जैसा शुष्क विषय होनेके कारण मैं अध्ययनसे घबड़ाता था तथा बहाने किया करता था । ऐसी मेरी मानसिक स्थिति और पढ़ाईचोर भावनाको देखकर श्री अगरचन्दजी नाहटाने (जो पूज्येश्वर गुरुदेवके भक्त होनेके साथ-साथ मुझे विद्वान् और क्रियापात्र साधु देखना चाहते थे) गुरु महाराजकी आज्ञा प्राप्तकर साहित्यकी तरफ मेरी रुचिको बढ़ाना प्रारम्भ किया। उन्होंने सर्वप्रथम हस्तलिखित ग्रन्थोंकी लिपिके अभ्यासकी ओर मुझे प्रवृत्त किया। मैं भी उस समय 'पढ़ाई' से विरक्तमना सा था । अतः मुझे भी यह मार्ग रुचिकर प्रतीत हुआ और मैं इस प्रयत्नमें अग्रसर हआ। बड़ोंके आशीर्वाद से इसमें मैं सफल भी हुआ। उन्हीं दिनों मैंने नाहटाजीके संग्रहके लगभग ३००० हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची भी तैयार की।
२७२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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