Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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[दो] भाई साहब और मैं दोनों एक ही परिवारके बच्चोंको ट्यूशन पढ़ाने जाया करते थे। एक दिन भाई साहबने नाहटाजीके उधर होकर निकलने की बात कही । उस दिन पहली बार मैंने अभय जैन ग्रन्थालय की सड़क नापी । भाईसाहब नाहटाजीसे मिलने ऊपर चले गये मगर मैं नीचे ही खड़ा रहा। भाई साहबके बहुत कहनेपर भी ऊपर जानेकी मुझमें कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हुई। नाहटाजीको जब पता चला तो उन्होंने भी मुझे खिड़कीसे आवाज दी, महेन्द्रजी, ऊपर आजाइयेगा।' उनकी हृष्ट पुष्ट आवाज चार व्यक्तियोंका संयुक्त घोल लिये थी। उसमें ठेठ मारवाड़ीपन था। मैं ऊपर नहीं गया और सीधा अपने ग्रन्थालय पहुंचा।
[ तीन ] दीवालीके कुछ दिन पूर्व एक दिन नाहटाजी ग्रन्थालय आये और मुझसे कहने लगे कि 'इन दिनों मेरे पास लिखनेवाला कोई नहीं है और दीवाली पर दो एक लेख प्रकाशनार्थ बाहर भेजने आवश्यक हैं, अतः आप कल सुबह आकर यह काम कर दें तो ठीक रहेगा।' मेरे कुछ कहने नहीं कहने की उन्होंने कोई बाट नहीं देखी और वे एक दृढ़ विश्वासी की तरह अपनी धनमें वहाँसे प्रस्थान कर गये। मैं दूसरे दिन प्रातः आठ बजे करीब उनके वहाँ पहुँच गया। देखता हूँ नाहटाजी सामायिक वेशमें बैठे हुए पन्ने उलट रहे हैं। उनके पूरे कमरे में जेटकी जेट किताबें पड़ी हुई हैं जैसे कोई खेत गाडरोंसे भरा हो और उनके बीच कोई गाडरी अपने मन में कोई निश्चिन्त लगन लिये अपने साफेका पलेवण कर रहा हो। मैंने उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने कहा, 'आइये, मैं आपही का इन्तजार कर रहा था' और वे पालथी मारकर महावीरस्थ हो गये । थोड़ी देर बाद उन्होंने मुझे पेन और पाठेका दस्ता पकड़ाते हए लिखाना प्रारम्भ कर दिया। दीवालीके दो लेख। एक लघु-लघु तथा दूसरा गुरु-गुरु । उनके लिखानेका ढंग ठीक वैसा ही था जैसे कोई होनहार शिक्षक अपने होशियार छात्र को पाठ लिखा रहा हो।
उनकी निगाह मेरी लेखनीपर और मैं विश्रामकी विभूति लिये बिना फ्र टियर मेल लिखता ही जा रहा हूँ। उन्हें दो लेख पूर्ण करने हैं और मुझे दो घन्टे । बीच लेखमें नाहटाजीको एक जगह कहीं कोटेशन देना था। वे तपाकसे उठे, दीवालके सहारे लगे पुस्तकोंके अम्बारमें से एक पुस्तक लाये, तत्काल सम्बन्धित कोटेशन निकाला, मुझे लिखाया और पुनः उसे अपने डेरे पहंचा आये। फिर वहीं उनकी पालथी और मेरी कलम ।
उनके ग्रन्थालयमें सैकड़ों किताबें, पत्र-पत्रिकाएं, हस्तलिखित ग्रंथ, पट्टे परवाने, रुक्के, ताम्रपत्र, सिक्के, चित्र तथा पांडुलिपियाँ हैं मगर नाहटाजीको उनके केटेलाग और इन्डेक्सकी आवश्यकता नहीं । उन्हें सब ज्ञात है। कोई चीज ऐसी नहीं है, जिसकी नींव-सींवसे वे परिचित न हों। एक सच्चे पहरियेकी भांति वे प्रत्येकके रोयें-रोयें से परिचित हैं । जैसा उनका अदभुतालय, वैसी ही अद्भुत उनकी स्मरण शक्ति । मैं चकित हूँ उनकी याददाश्ती कितनी अवधानमूलक, व्यवस्थित, विचित्र, टीपटाप और अपटू डेट है।
चार] नाहटाजी एक प्रखर खोजक हैं । इस क्षेत्रमें उनका कोई मकाबला नहीं। शोध खोजके लिए मनसा वाचा, कर्मणा उन्होंने अपने आपको समर्पित कर दिया है। अज्ञातको ज्ञात करने, अधूरे ज्ञानको पूर्ण ज्ञात करने तथा ज्ञात को उत्तम ढंगसे ज्ञात करने में उनकी गहरी पैठ, धुन, धैर्य, कर्मठ कुशलता और कार्य क्षिप्रताकी कोई सानी नहीं। राजस्थानका शायद ही कोई हस्तलिखित ग्रन्थागार हो, जहाँ उनकी पहुँच नहीं हुई हो।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २८५
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