Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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रिक्त भारतीय संस्कृतिके भी दर्शन होते हैं। इन्होंने फुटकर लेखोंके अतिरिक्त कुछ ऐसे ग्रन्थोंका संपादन भी किया है, जो लोक-साहित्यकी अमूल्य निधि हैं। श्रीनाहटाजीने किसी कॉलेजमें जाकर शिक्षाकी कोई डिग्री प्राप्त नहीं की है । साधारण काम चलाऊ शिक्षा प्राप्त करके आपने साहित्य क्षेत्रमें पदार्पण किया और अपनी सच्ची लगन और परिश्रमके बल पर साहित्यजगत्को बड़ी महत्त्वपूर्ण एवं अमूल्य कृतियाँ प्रदान की, जो अन्य लोगोंके लिए आदर्श कही जा सकती है ।।
जैन-धर्म, दर्शन तथा साहित्य और इतिहासके आप प्रकांड विद्वान हैं, इसलिए इनको जैन इतिहास रत्नका पद मिला, जो इनकी योग्यता और साहित्य सेवाको देखते हुए सर्वथा उचित है।
आप स्वभावसे बड़े सरल, मिलनसार और दयाल हैं। एक बार भी इनसे जो मिल जाता है, वह इनके व्यक्तित्वसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। मेरे एक पड़ोसी अपने कार्य वश एक बार बीकानेर गए तब आदरणीय नाहटाजीके यहाँ भी इनके दर्शनार्थ मेरा एक पत्र लेकर इनकी सेवामें पहुँचे । उनके हृदयमें आजतक नाहटाजी बसे हुए हैं ।
मैं नाहटाजीके प्रति अपनी हार्दिक शुभ कामना प्रकट करता हूँ और इनकी दीर्घायुके लिए ईश्वरसे प्रार्थना करता हूँ।
ज्ञान-सूर्य नाहटा
श्री गजासिंह राठोर नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो, न मेधया वा बहुना श्रुतेन ।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुं स्वाम् ॥ कठोपनिषद्की यह पारम्परिक आध्यात्मिक अनुश्रुति नाहटाजी पर शत प्रतिशत घटित होती है। नाहटाजी न तो किसी विश्वविद्यालयके उपाधि प्राप्त स्नातक हैं, न किसी गुरुकुलसे उच्चशिक्षा प्राप्त शिक्षा शास्त्री। इन्होंने अपने अगाध अन्तरमें अहर्निश गहरी डुबकियाँ लगाकर प्रचण्ड ज्ञान मार्तण्डका देदीप्यमान आत्म-स्वरूप प्राप्त किया है। __नाहटाजीका नाम मैं बहुत वर्षों से सुनता आ रहा हूँ। भिन्न रुचिके साहित्यिकों, समालोचकों और अपने मित्रोंसे सुनी बातों और विभिन्न कर्णपरम्पराओंके माध्यमसे फैली किंवदन्तियोंने मेरे हृत्पटल पर नाहटाजीका कूल मिला कर एक बड़ा ही विचित्र रेखाचित्र अंकित कर दिया था। मेरा अन्तर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तिसे कुछ क्षण बात करनेके लिये वर्षोंसे व्यग्न हो रहा था। अनेक बार इनसे संपर्ककी चाह मनमें जगी पर मैंने उस चाहको पूरा करनेका कभी प्रयास नहीं किया, क्योंकि मेरी धारणाके अनुसार मैं उन परमाणुओंसे बना हुआ हूँ जो न स्वयंको अन्यमें घुलने देते हैं और न अन्यको ही स्वयंमें, परंतु प्रकृतिका यह अटल नियम है कि जो इच्छा एक बार अन्तरमें उद्भूत हो जाती है वह देर-अबेरसे कभी न कभी अवश्य साकार होती है।
प्रकृतिके इस अपरिहार्य क्रमके अनुसार गतवर्ष भाद्रपद शुक्ला सप्तमीको मुझे महान् इतिहासकार जैनाचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब द्वारा रचित "जैनधर्मका मौलिक इतिहास-प्रथम खण्ड" नामक
२९४ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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