Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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हो इनके जीवनके तीन लक्ष्य हैं । इनके 'नाहटा कलाभवन' में अनेक अनुपलब्ध पाण्डुलिपियों तथा अलभ्य कलावस्तुओंका अद्भुत संग्रह है । लक्ष्मी एवं सरस्वतीका अनोखा संयोग नाहटा जी के जीवनमें मुझे देखने को मिला है । इस कला भवनमें सुरक्षित “संत वाणी संग्रह" से मुझे लगभग सौ नए पदोंकी उपलब्धि हुई ऐसे निःस्वार्थ साहित्य एवं समाज सेवी महामानव शतायु हों ऐसी मेरी मंगल कामनाएँ इनके प्रति हैं ।
एक महान् व्यक्तित्व
डा० बी० पी० शर्मा
१ जुलाई को प्रातः स्नानादि से निवृत्त होकर आठ बजे के लगभग नाहटोंकी गवाड़ में श्री अगरचन्द जी नाहटाजीके द्वार पर आ पहुँचा । घर ढूढ़नेमें कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई दरवाजा खटखटाया; एक व्यक्ति धोती बाँधे बाहर आया । उसका बाकी शरीर नंगा था, जिससे मालूम होता था कि अभी स्नान किया है। और कपड़े पहिनने हैं । मैंने नमस्कार करके पूछा, “मुझ े नाहटाजीसे मिलना है । "मैं ही नाहटा हूँ ।" यद्यपि नाहटाजीसे पुराना परिचय था पर पत्र व्यवहार द्वारा ही । आज से बारह वर्ष पूर्व इन्हीं के सहयोगसे मैंने पृथ्वीराज रासोका सम्पादन किया था । श्रद्धा से प्रणाम किया । नाहटाजी हिन्दी साहित्य के क्षेत्रमें जाने-माने विद्वान् हैं । व्यापारी रहते हुए भी साहित्यसे प्रेम है | सरस्वती और लक्ष्मीका अद्भुत संयोग है । भारतके प्रत्येक कोनेसे शोधार्थी विद्वान् नाहटाजी के कला-भवन में पहुँचते हैं । इनके कला भवन में प्राचीन कला-कृतियों, प्राचीन पाण्डुलिपियों एवं अलभ्य पुस्तकोंका भण्डार है । पुस्तकों के ढेर के मध्य बैठे नाहटाजी प्रसिद्ध फ्रेंच लेखक वाल्टेयर जैसे प्रतीत होते हैं ।
आप स्वभाव से विनम्र, दानशील एवं उदारचित्त विद्वान् हैं । आगन्तुक शोधार्थियों की उत्सुकता से एवं प्रसन्नता से प्रसन्न होना, इनके स्वभावकी विशेषता है । मैंने तीन दिन प्रातः आठ बजे से सायं ६ बजे तक इनके अध्ययन कक्ष में बैठ कर "संत वाणी संग्रह " पाण्डुलिपि से गुरु रविदासकी वाणी के लगभग १०० पदों प्रतिलिपि की ।
दुपहर का भोजन नाहटाजीके घरपर ही चलता था। इन तीन दिनोंमें अनेक व्यक्ति यहाँ आये । नाहाजी यदि बाहर गये होते तो उनके पीछे, इन लोगोंसे मुझे निपटना पड़ता था । एक स्त्री अपने आठदस सालके बालक को लेकर वहाँ आई । उसने राजस्थानीमें कुछ कहा 1 उसकी बात मेरी समझ में बहुत कम आई। वह नाहटाजी से अपने स्कूली बालकके लिए पाठ्य-पुस्तकें मांगने आई थी । एक पीत वस्त्रधारी साधु आये, बिना किसी झिझक के ऊपर आ गये । प्रश्न किया- " नाहटाजी कहां हैं ?" "मैंने पूछा " क्यों ? " कबूतरोंके लिए बजरा खरीदना है— पैसे चाहिए ।" तीसरे दिन जयपुरसे ३०० मीलकी यात्रा करके शोधार्थी छात्रा पहुंची । नाहटाजी उसे सारे दिन पाण्डुलिपियां एवं अन्य पुस्तकें दिखाते रहे और सायं तक उसके प्रस्तावित शोध प्रबन्धका पूरा खरड़ा बनाकर उसे सौंप दिया ।
मैं तो सोचता हूं कि नाहटाजी भारतेन्दु हरिश्चन्द्रसे कम नहीं । इनकी यह साहित्य-साधना गत चालीस वर्षोंसे अनवरत चल रही है । ३७ ग्रन्थोंका इन्होंने सम्पादन किया है । भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में इनके तीन हजार शोध लेख छप चुके हैं । इनकी इन्हीं विशेषताओंसे प्रभावित होकर भारतके विद्वत्-समाजने इनके सम्मान में अभिनन्दन समारोह किया है ।
२३६ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन ग्रंथ
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