Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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सन्दर्भ, इतिहास, पुरातत्त्व, कला, साहित्य, अध्यात्म, धर्म, सम्प्रदाय, महापुरुष, साहित्यकार, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, नगर, तीर्थ, मन्दिर, साहित्य संस्था, पुस्तकालय, आचार, शिक्षा, ज्योतिष, गणित, अर्थशास्त्र, व्याकरण, ज्ञान-विज्ञान आदि सभी पर उनकी खोजपूर्ण लेखनी समान गतिसे सक्रिय रही है, लगता है भारतवर्षका हिन्दीका शायद ही कोई साहित्यिक पत्र ऐसा बचा होगा जिसमें उनकी खोज न छपी हो । प्राचीन जैन पुस्तकालयों और ग्रन्थागारोंमें भी शायद ही कोई उनकी दृष्टिसे बचा हो । जैन साहित्यका खोजी तो शताब्दियों तक उनके समान शायद ही भारत उत्पन्न कर सकेगा । प्राचीन साहित्य के रूपों के नाहटाजी निर्विवाद एकमेव पारखी विशेषज्ञ है । उनको कई भाषाओंका चूड़ान्त ज्ञान प्राप्त है।
नाहटाजी ने सं० १९८४में लेख आदि लिखना आरम्भ किया था। विधवा कर्तव्य उनका प्रथम प्रकाशित ग्रन्थ है । सं० २०१० तक उनके प्रकाशित ग्रन्थोंकी संख्या ६१ थी। वे अनेक ख्याति प्राप्त साहित्यिक-सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक संस्थाओंके संस्थापक, अभिभाषक, ट्रस्टी, सदस्य हैं। वे राजस्थानीभारती, (बीकानेर), राजस्थानी, (कलकत्ता). शोध-पत्रिका (उदयपर). मरुभारती (पिल परम्परा आदि प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओंके सम्पादक तथा संपादक मंडलमें रहे हैं। नाहटाजीकी खोज और उनके लेखन के प्रमुख विषय हैं-जैन साहित्य, इतिहास, राजस्थानी साहित्य और प्राचीन हिन्दी साहित्य । नाहटाजी ने साहित्यमें सर्वोच्च शोधकारका गौरव प्राप्त किया है। ऐसा कोई विद्वान् या विश्वविद्यालय देशके ओर-छोर तक नहीं जो प्रत्यक्षपरोक्ष नाहटाजी के शोध कार्यसे इस जीवनमें उपकृत न हुआ हो। वे एक आदर्श खोजी हैं, और युगके खोजियोंके मार्गदर्शक प्रेरणा-स्तम्भ हैं । शताब्दियाँ उनकी ऋणी रहेंगी। अपने खोज के क्षेत्रमें वे कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं रखते । जैसी उनकी आकृति-प्रकृति है, वैसी ही विशाल-महान् उनकी सारस्वत-उपलब्धियाँ भी हैं । लक्ष्मी और सरस्वतीके सर्वतोभावेन समान रूप से लाड़ले साहित्यके इस भगीरथके दीर्घायुष्यको हमारी हार्दिक कामना है ।
श्रद्धय श्री अगरचन्दजी नाहटा : प्रथम दर्शन
_प्रो० नथुनी सिंह मैंने गुरुवर डॉ० चन्द्रकुंवरप्रकाशसिंह ( अध्यक्ष, हिन्दी विभाग मगध विश्वविद्यालय बोधि गया ) का आदेश-पाथेय लेकर अपने शोधके सन्दर्भमें राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान जोधपुरकी यात्रा की। वहाँ ४-५ दिनके अध्ययन-अनुशीलनके पश्चात् मैंने अनुभव किया कि मेरी सामग्रीकी उपलब्धि यहाँ सम्पूर्णतः सम्भव नहीं है। इसी सन्दर्भ में वहाँके वरिष्ठ शोध-सहायकोंसे मेरी बातें हुई और डॉ. पुरुषोत्तमलाल मेनारिया ( कार्यकारी निदेशक, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर) से भी शोधके सन्दर्भ में कुछ गम्भीर वार्ता हुई। डॉ० मेनारियाने मुझे बीकानेर की यात्रा करनेकी सलाह दी और कहा कि बीकानेरमें श्री अगरचन्दजी नाहटा आपकी अधिक सहायता कर सकेंगे। नाहटाजीसे प्रत्यक्ष परिचय नहीं रहने के उपरान्त भी उनके विपुल साहित्यसे परिचय तो था ही, अतः मैंने आज्ञा शिरोधार्य कर ली।
ऐसे जब मैं राँची विश्वविद्यालयके अन्तर्गत एम० ए०का छात्र था, तब सर्वप्रथम डॉ. जयनारायण मंडल ( अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, राँची काँग्रेस, रांची) के श्रीमुखसे मैंने श्री अगरचन्दजी नाहटाका नाम सुना था। हिन्दी साहित्यके इतिहासके आदिकालके पठन-पाठनके सन्दर्भमें डा० मंडलने श्री नाहटा एवं डा०
२५० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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