Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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कलित करके अपने शोध-विनियोगको सांग और सनाथ किया है। मुझे बिहार-हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन तथा बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्के शोध-त्रैमासिक 'साहित्य' और 'परिषद्-पत्रिका'की सम्पादन-सम्बद्धताका साग्रह संयोग सुलभ रहा है । उक्त दोनों शोध-पत्रिकाएँ श्री नाहटाजी के अनेक हस्तलिखित ग्रन्थोंके शोधअध्ययन-विषयक लेखोंसे गौरवान्वित हई हैं। और, इसी सारस्वत व्याजसे उनसे मेरी निरतिशय निकटताका सम्पर्क स्थापित हो पाया है। निश्चय ही, वे मेरे लिए न केवल योगक्षेमकी जिज्ञासा रखते हैं, अपितु जैनवाङ्मयके अध्ययनके क्षेत्रमें मेरी प्रामाणिक प्रगतिका लेखा-जोखा भी लेते रहते हैं । सत्यतः, ऐसी उदारता और आत्मीयताके वितरणकी अकृपणता बहत कम विद्वानोंमें परिलक्षित होती है।
सरस्वतीके वरद पुत्र श्री नाहटाजी बीकानेरके प्रमुख व्यवसायियोंमें परिगणित होते हैं । असम-राज्यमें उनका बहुत बड़ा व्यवसाय फैला हुआ है। फिर भी, उनको लक्ष्मीको उनकी सरस्वतीसे किसी प्रकारका भी सपत्नी-भाव नहीं है। वरंच उनके सारस्वत व्यवसायके समक्ष उनका आर्थिक व्यवसाय नितान्त गौण हो हो गया है । वे मुख्यतः सारस्वत सामग्रीके ही अंगुलिगण्य आध्यात्मिक व्यवसायी हैं । असलियत तो यह है कि श्री नाहटाजी 'वाणिज्ये वसति लक्ष्मीः'के सिद्धान्तसे कहीं अधिक इस सिद्धान्तके निष्ठावान समर्थक हैं कि “विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ।'
श्री नाहटाजी पत्राचार-पुंगव पुरुष हैं, पत्र लिखनेकी सहजात तत्परताकी दृष्टिसे भी उनकी द्वितीयता नहीं है। पात्रिक संस्कारसे सम्पन्न वे तो स्मृतिशक्तिके महानिधि ही हैं । अहोरात्र नवीन शोधप्रकाशनोंकी जिज्ञासामें सोने और जगनेवाले श्री नाहटाजी जैसा संयमी और धीर व्यक्तिको सहज ही विरलता हुआ करती है। कहते हैं, जो लाकातिग विद्वान होते हैं, उनकी हस्तलिपि प्रायः सुस्पष्ट नहीं होती। मुझे अनन्य प्रतिभापति महामहोपाध्याय पं० रामावतार शर्मा एवं उनके 'आत्मा वै जायते पुत्रः'के अक्षरशः अन्वर्थयिता आत्मज आचार्य नलिनविलोचन शर्माकी हस्तलिपियोंके अध्ययन-मननका सघन संयोग उपलब्ध रहा है । श्री नाहटाजीकी हस्तलिपि भी उसी विद्वत्-परम्पराका पोषण करती है। श्री नाहटाजीके अनेक ऐसे पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं । और, परिषद्में भी यदि उनके हाथका लिखा कोई पत्र आता है, तो अर्थसंगतिके लिए मझे ही उनके अक्षरोंको टटोलना पड़ता है। संस्कृति-वाङ्मयके धरन्धर पं० मथुराप्रसाद दीक्षित-लिखित संस्कृत-नाटक 'वीरप्रताप में एक जगह उटूंकित है : 'पृज्यानां चरितानि वाच्यपदवीं नायान्ति लोके क्वचित् ।'
, महामनीषियों की अर्थगर्भ हस्तलिपि अवाच्य होनेपर भी वाच्यपदवी ( निन्दा) को नहीं प्राप्त होती । क्योंकि, उनके अक्षरोंकी वक्ररेखाओंमें निहित उनके सरल विचार ही महार्घ और अन्वेष्टव्य हुआ करते हैं। यही कारण है कि महात्मा गान्धी एवं आचार्य विनोबा जैसे राष्ट्रनायक अपनी अस्पष्ट लिपिकी अपेक्षा अपने विशद विचारोंसे ही महान् हुए।
शोध-साहित्यके इतिहास में श्री नाहटाजी जैसा बहभाषाभिज्ञ लेखक दूसरा नहीं मिलेगा बहत सिर खुजलानेपर भी उनका ही नाम पहला रहेगा। श्री नाहटाजी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि प्राच्य भाषाओंके मर्मज्ञ तो हैं ही, राजस्थानकी अनेक उपभाषाओंपर भी उनका प्रभुत्व है। उन्हें हस्तलिखित पोथियोंका 'जंगम विश्वकोश' कहा जाना चाहिए उनके द्वारा हस्तलिखित पोथियोंकी शोध-समस्याओंको शाश्वत प्रश्न बनाकर उपस्थित करनेकी विधि सदा आकर्षक रही है, जिसका नूतन कल्प और विन्यास प्रस्तुत करने में उनकी ततोऽधिक प्रतिष्ठा है।
श्री नाहटाजी साहित्यिकोंमें प्रमुखतः शोधकर्ता हैं और शोधकर्ताओंमें विशेषतः साहित्यिक । परिणामतः, उन्होंने शोधको साहित्य और साहित्यको शोधका विशिष्ट अंग बनाने की चिन्ता बराबर की है। ऐसी
१८८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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