Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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यह नई फसलकी बुवाई होती है । धरतीको हम लोग इस प्रकार बीज देते हैं और अच्छी फसलकी आशा करते हैं । आधी रातके बाद मालवीके गंभीर कवियोंका कविता-पाठ शुरू हुआ। पहिले कविकी दूसरी या तीसरीही पंक्तिपर नाहटाजी चश्मा उतारकर लोट से नीचे उतर गये और गादीपर सरककर बैठ गये । लगा कि एक असुविधा उनको कहीं है । फिर उनके मुंह से बोल फूट ने लगे और वे चिन्तामणिजीसे कविके बारेमें
ने लगे। कविता समाप्त होते-होते वे अध्यक्ष नहीं रहकर श्रोता बन चके थे और परे खुल गये थे। कोई दो बजे उन्होंने कहा “मैं फिर भाषण देना चाहता हूँ, मुझे कुछ बोलना है।" मुझे तो पता भी नहीं था कि पहिले वे क्या बोले थे । दादाने उनसे निवेदन किया कि वे शेष दो तीन कवियोंको और सुनलें और फिर आशीर्वाद दें। वे मान गये। हम सब कविता पाठका एक दौर पूरा कर चुके तो वे बरबस माइकपर आ गये । उनका अधिकार तो था ही माइकपर आकर उन्होंने राजस्थानी और मालवी साहित्यके लिये बोलना शुरू किया । लगा सागरकी एक-एक लहर किनारेसे ठट्ठ मारकर टकरा रही है, किनारेका कण-कण भीग रहा है। वे बोले जा रहे थे। कुछ अनुमान नहीं लगा कि वे कितनी देर बोले पर वे अनथक बोले जा रहे थे। अमूमन कवि सम्मेलनोंमें जनता अध्यक्षको बड़े प्रेमसे हट कर दिया करती है । परन्तु उनका बोलना कविता से कम प्रभावशाली नहीं था। यहाँ तक कह गये कि 'में मालवीको राजस्थानी की बेटी मानता हूँ और इस नाते इसके पितृवंशका परिजन होता हूँ। मुझे अपार प्रसन्नता है कि मेरी बेटीका कुल ठीक है और उसके बच्चे उसकी भली प्रकार सेवा कर रहे हैं । मेरी बधाई और आशीर्वाद । वास्तवमें आजका दिन मेरे जीवनका एक सार्थक दिन है और मैं इस बातको कभी नहीं भूल सकूगा कि मैंने एक सही साहित्यिक समारोह को अध्यक्षता की थी। मेरा उज्जैन आना नहीं, लोक साहित्यकी सेवा करना आज फल रहा है, मुझे मेरी तपस्याका पहिला फल मिला है'। करीब-करीब वे विगलित हो उठे और उनकी बड़ी-बड़ी आँखोंमें लोक साहित्यका प्राण-परनाला उछल आया, वे बह गये, हम सब बह गये, यहाँ से वहाँ तक सन्नाटा था । लोग समझ नहीं पारहे थे कि इस यारका उत्तर मालवासे उनको कैसा दिया जायेगा। यह काम तो हम लोगों पर था।
शायद दूसरे दिन सबेरे वे चले गये । मुझे पता नहीं कि वे कब और कैसे गये पर उस एक अध्यक्षता में वे हम लोगों पर इतना बोझ डाल गये हैं कि उस बोझको ढोते-ढोते हम कवि लोग निहाल हो रहे हैं। इस वजन ने कंधोंको झुकाया है दुखाया नहीं । मन करता है वे एक बार फिर मिलें और उनके सामने इन दस पाँच सालोंका हिसाब फिर रख दें, कहें 'ले सेठ यह वह पूंजी है जो तेरे गुरसे हमने कमाई है। पता नहीं वह दिन कब मिलेगा।
भक्त कवि 'पदमजी का महान कथा-ग्रन्थ। 'रुक्मणी मंगल' मैंने पढ़ा है। मेरे पिता कथा वाचक रहे हैं और उन कथाओंमें यत्र-तत्र सेठका चित्र खींचा गया है। 'पदमजी' की रस-पगी लेखनी ने मेरे दिल दिमागपर भारतके एक बनियकी मति बना रखी है। मुझे लगता है नाहटाजी वैसे ही सेठ हैं, वैसे ही बनिये हैं। मुझे क्या मतलब है कि वे कितने पढ़े-लिखे हैं और कैसा लिखते-पढ़ते हैं । इससे मेरा क्या बनता . बिगड़ता है कि वे जैनी है या वैष्णव । उनके माथे पर सेर सूत वंधा है, उनकी मूंछों पर बल है, चेहरे पर रौब है पर आँखोंमें लोक साहित्यकी करुणा अँजी है।
वे एक बार मिले तो अपनी उम्र हम मालवी वालोंको दे गये थे, अबकी बार कभी फिर मिले तो अपनी तपस्या भी दे देंगे। भगवान हमें इस योग्य बनाये । सुनते हैं बनिया देने में बड़ा कंजूस होता है पर लोककथाओंमें मैंने बनिये का जगह-जगह लुटता देखा है, नाहटाजी दे भी देते हैं और लुट भी जाते हैं।
व्यक्तित्व, कृतित्व एवं संस्मरण : २३१
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