Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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की चोरी हो गई। निस्सन्देह यह एक आकस्मिक धक्का था, यह एक गहरी चोट थी। लेकिन उस समय भी वह पूर्ण शान्त एवं गंभीर थे । देखता था कि उनकी दैनिक चर्यामें कोई अन्तर नहीं आया है । अध्ययनअनुशीलनकी गति वही है, ग्रन्थोंसे लगाव उतना ही है, उस कामके लिए समय उतना ही है। मैं यह नहीं मानता कि चोरी हो जानेका उनको दुःख न था; वह तो होगा किन्तु वह होगा भीतर ही, बाहर वह अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा था। ऐसे अवसरकी धीरता और गंभीरता वास्तवमें वरेण्य थी। विपत्तिमें धैर्य न खोकर, अधिकल रहकर गंभीर बना रहने वाला मानव सामान्य मानवसे बहुत ऊँचा होता है।
वे क्षण भूलने योग्य नहीं हैं, जो नाहटाजीके पास रहकर बिताये। वे क्षण मेरी स्मृतियाँ हैं-मधुर आनन्ददायिनी और अमिट स्मृतियाँ-ऐसी स्मृतियाँ, जो मेरे जीवनमें ऐतिहासिक महत्त्व रखती हैं।
बीकानेर और नाहटाजी
डॉ० नारायणसिंह भाटी पूरे बीकानेरमें मेरे लिए आकर्षणको कोई वस्तु है तो वे हैं अगरचन्दजी नाहटा। संस्थानके कार्यसे कई बार बीकानेर जानेका अवसर आता ही रहता है। कई बार बड़ी व्यस्तता रहती है परन्तु ऐसा शायद ही कभी हआ हो जब नाहटाजीसे मिले बिना लौट आनेके लिए मन राजी हो गया हो।
नाहटाजीके घर तक पहुँचने में किसी भी अपरिचित आदमीको कोई कठिनाई नहीं हो सकती। साहित्यकारकी तो बात छोड़ दीजिये, हर तांगे वाले से पूछ लीजिये, किसी चलते फिरते डाकियेसे पूछ लीजिये, वह फौरन साहित्यकार नाहटाजी, लाइब्रेरी वाले नाहटाजी, मूंछों वाले नाहटाजीका पता बता देगा और बहुत बार तो मोहल्ले (नाहटोंकी गवाड़) तक पहुँचते-पहुँचते ही यह सूचना भी मिल ही जाती है कि नाहटाजी यहाँ हैं या कहीं बाहर गये हुए हैं।
मैं जब भी उनसे मिला, या तो वे लाइब्रेरीमें ग्रंथ देखने में व्यस्त मिले या घरपर, न मंदिरमें, न बाजारमें और न रिश्तेदारके घरपर। हाँ, एक-दो बार यह पता अवश्य लगा कि वे अनूप संस्कृत लाइब्रेरी गये हए हैं और अभी-अभी लौट आएंगे। वे हर व्यक्तिसे बड़ी सरलतासे मिलते हैं और लाइब्रेरीमें पहुँचतेपहुँचतें कामकी बात शुरू कर देते हैं ।
मैंने उनमें सबसे बड़ी बात यह देखी कि आलस्य जैसी चीज उनको छू तक नहीं गई है। किसी भी शोध-विद्यार्थीके पहँचनेपर वे अविलंब उसकी सहायतार्थ तैयार हो जाते हैं। बस्तोंमें से ग्रंथ टटोलकर निकालना, पुरानी फाइलें ढूँढ़ कर निकालना आदि उनके जीवनकी सामान्य गतिविधि बन गई है । मैं जब डिंगल गीतोंपर शोधकार्य कर रहा था तो एक बार इस निमित्त ही वहाँ पहुँचा। सामग्रीकी बात करते-करते बोले, "जैनियोंने डिंगल गीत लिखे तो हैं पर उनका मिलना बड़ा कठिन है।" और फिर धीरेसे उठकर एक बस्ता निकाला तथा कचरदासके कुछ गीत निकाल कर दिये। मैं उनकी स्मरण-शक्ति देख कर दंग रह गया और साथ ही मुझे यह बात भी समझमें आ गई कि हजारों अज्ञात कृतियोंको नाहटाजी किस प्रकार प्रकाशमें ले आये। नयी कृतियोंको प्रकाशमें लानेकी उनकी सी आतुरता मैंने किसी साहित्यकारमें नहीं देखी। वे बिना किसी प्रकारकी विद्वत्ता बघारे फौरन साहित्य-जगतको नई कृतिसे अवगत करना जैसे अपना कर्तव्य समझते हैं।
१६८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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