Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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इसी प्रसंगमें आपकी आत्माभिव्यक्तिका एक नमूना उपस्थित करनेके लोभका संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। आपके दीक्षागुरु श्री सहजानंदजीके निधनका समाचार आपको अजमेरसे बीकानेर जाते समय ट्रेनमें मिला और आपने अपने पूज्य श्रीपादके प्रति अपनी भावनाओंको प्राकृतका यह रूप दिया।
अज्झत तत्तस्स सुपारगामी, एगावयारी पूइय सुरिन्दो। मुणीन्द मउड़ो सुजुगप्पहाणो, गुरूवरो सहजाणंद णामो ॥१॥ निव्वाणवत्तो सुसमाहिजत्तो, कत्तीय धवले तइयातिहीए। निच्छत्त जाओ इह भरहखित्तो धम्मस्स एगो सायार रूवो ॥२॥ खेयेण खिन्नो सुमुमुक्खु संघो जाओ निरालंब समग्गलोओ।
विदेह खित्तट्ठिय ते महप्पा भत्ताण देहिं निव्वुइ सुसत्ती ॥३।। प्राकृतके एक ग्रन्थ जीवदया प्रकरणकी प्राचीन प्रति उपलब्ध होनेपर जब आपने उसे श्री हरषचंदजी बोथराको दिखायी थी, आपने आग्रह किया कि प्राकृत पद्योंका हिन्दी पद्यानुवाद भी प्रस्तुत करनेका प्रयास करें तो ग्रन्थ अधिक मूल्यवान हो जायगा । आपने अनुरोध स्वीकार कर लिया और प्रायः चार-पाँच दिनोंमें
वाद हरिगोतिका छंदम भिव्यक्त कर डालो । काव्य-प्रतिभाके धनी आपकी सहज अनुवादकी शैली मूलभावोंकी कितनी अंतरंगिणी बन सकी है एक आध उदाहरण पाठकोंके लिए पर्याप्त होंगे।
संसय तिमिर पयंगं भवियायण कुमय पुन्निमा इंदं । काम गइंद मइंदं जग जीव हियं जिणं नमिउ ।।१।। संशय तिमिरहर तरणि सम जिनका परम विज्ञान है, भविजन कुमुद सुविकास कारक चंद्रसम छविमान है। करिवर्य मकरध्वज बिदारण सिंहसम उपमान है, जगके हितंकर तीर्थपतिको नमन मंगल खान है ॥१॥ दियहं करेह कम्मं दारिद्द हएहिं पुट्ठ भरणत्थं । रयणीसु गेय णिद्दा चिंताए धम्म रहियाणं ॥३८॥ लाया नहीं है पूर्वके सत्कर्म अपने साथमें तो पेट भरनेके लिए कैसे बचेगा हाथमें ? दिवस भर है कष्ट करता कठिन श्रम बिन धर्मके
रातमें निद्रा न पाता, फल मिले दुष्कर्मके ॥३८।। और अन्तमें प्राकृत भाषाके एकमात्र अलंकार-शास्त्र : "अलंकार दप्पण" नामक-ग्रन्थ जैसलमेरके भंडारसे ताडपत्रीय प्रतिलिपिमें प्राप्त हुआ था। श्री अगरचन्दजीके अनुरोधपर इस प्रतिभाशाली शारदाके वरदपुत्रने हिन्दी अनुवादके साथ-साथ संस्कृत छायानुवाद कर इस दुर्लभ ग्रन्थकी महत्तापर चार चाँद लगा दिया जो विद्वानोंके लिए स्पर्धाकी वस्तु है । एक उदाहरण इस प्रकार है।
संखलोवमा जहा-शृंखलोपमा यथा सगस्स व कणअ-गिरी कंचन-गिरिणु व महिअलं होउ महि बीढ़स्सवि भरधरणपच्चलो तह तुमं चेअ स्वर्गस्ववकनकगिरि कंचनगिरिणैव इव महीतलं भवतु । महीपीठस्यापि भारधरणप्रव्यक्तस्तथा त्वं चैव ।।
१०० : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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