Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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आपके उपजीव्य आधार हैं। धर्म यद्यपि शोध-विषय नहीं है, मात्र विश्वास ही उसका शोध है जिसे आत्मनिरीक्षण या आत्मविश्लेषण कहा जाता है, फिर भी आपकी सजग चेतना परम्परा और सत्यके बीच सामंजस्य स्थापित करने में सतत संलग्न रही है। सत्य यह है कि कालभेदसे मतभेद होता है और मतभेदसे मनभेद । यही मनभेद विकल्पको जन्म देता है और विद ल्प असमंजसकी स्थितिमें मानवचेतनाको अस्थिर बना देता है जिसे हम क्रान्तिका धरातल कह लेते हैं। यहीं द्विधा उत्पन्न होती है। फलतः विचारोंमें संतुलन रह नहीं पाता और वाद-विवादकी स्थिति व्यक्ति, समाज, राष्ट्र व अन्तर्राष्ट्र-मनको विचलित कर देती है। यह सारी स्थिति कालभेदको लेकर चलती है। काल स्वयं बँधता है क्षणोंमें, घंटों और दिनोंमें, मास
और वर्षों में और फिर युगों और शताब्दियोंमें । शायद इसीलिये सामाजिक चेतनाके प्रतीक धर्मके अविरल विभाज्य-बिन्दुओंके प्रवाहको काल भी नहीं पचा पाता है क्योंकि महापुरुषों और कालपुरुषके इसी अन्तर्द्वन्द्वके शोधनकी आवश्यकता मनीषियों व चिन्तकोंकी कालजयी मेधा, सदा अनुभव करती रही है। अतीतको वर्तमान और भविष्यको भी सजग वर्तमान बनाने की साधना कितनी स्तुत्य है, यह मनीषी पाठक ही विचार करेंगे । मैंने तो इस व्यक्तित्वकी चेष्टाओंकी प्रतीतिके लिए अपनी अनुभूति भर व्यक्त की है। भंवरलालजीकी अन्तर्दृष्टि इतनी सूक्ष्म रही है, जितनी कालकी गति । इसीलिये इस मौनचिन्तकको प्रज्ञा सदा वातावरण-सापेक्ष्य होते हए भी बिखरी हई धर्मकी कड़ियोंमें व्यामोहरहित गांठ बाँधती चली आयी है। वे कहा करते हैं कि :
"वेदा विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य मतिर्न भिन्ना ।
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ।।" आप अडिग हैं, निश्चल हैं । सचमुच विज्ञापन-रहित हैं। अपने विश्वासोंको ही जीवनके नैतिक मूल्योंका आधार मानते आये हैं । यदा कदा ऐसे अवसरोंपर जब वे आलोच्य बने हैं, इन्होंने कहा है कि भर्तृहरि ठीक कहते हैं :
"निन्दतु नीति-निपुणा, यदि वा स्तुवन्तु लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा न्याय्यात् पथः प्रविचलन्तिपदं न धीराः ।।"
अध्ययन, चिन्तन, मनन, अध्यवसाय व निदिध्यासन, आपके जीवनके स्थिर-चित्र हैं। सद्गुरु साथ है, जैनानुशासन पासमें है, अविचल निष्ठा है, फलतः इनमें विकल्प नहीं, द्विधा नहीं, एक बोध है। प्राणवान् विश्वास है। क्योंकि आपके लिए धर्म साधन और सिद्धि दोनों ही है। प्रमाणके लिए अभी-अभी एक जीवन्त प्रश्नपर आपके विचार देखनेको मिले हैं। भगवान् महावीरके दिव्य प्रयाणके पावन स्थल पावापुरीको लेकर एक विवाद उठ खड़ा हुआ है। कन्हैयालालजी सरावगीकी इस विषयमें एक पुस्तक मुझे भी पढ़नेको मिली थी। मैंने भंवरलालजीसे प्रश्न किया था कि आपकी इस विषयमें क्या सम्मति है ? आपने स्पष्ट उत्तर दिया-"भाई भगवान् महावीरको २५०० वीं जयंती मनानेका भारत सरकारने निश्चय किया है। युगपुरुष एकदेशीय नहीं होते, उनका आदेश समस्त संसारके लिए होता है। उनके जन्म और निर्वाणके स्थानके निर्णय, विशुद्ध ऐतिहासिक व पुरातात्त्विक प्रश्न हैं। इसपर एकान्तिक विचार करना किसी भी सम्प्रदायके लिए उचित नहीं। मेरा तो अपना ख्याल है कि हजारों वर्षोंसे लोक-श्रद्धा मध्यमपावा, जो बिहार प्रान्तमें स्थित है, को ही प्रभुका प्रयाण-स्थल समझकर अपनी भक्ति प्रगट करती आ रही है । इसलिये राजनैतिक या निहित स्वार्थमें लिप्त कुछेक वर्ग या सम्प्रदायको तात्त्विक व्याख्या सामयिक लाभके लिए ही है। विदेशी विद्वानोंने प्रायः बौद्ध-त्रिपिटकों ही को अपने इतिहास लेखनमें सहायक माना है । जैन
जोवन परिचय : ९१
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