Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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( ११
१. पुत्र -मरण शोक असहनीय होता है ।
२. मूर्ख ही अपने रहस्योंको प्रकट करते रहते 1 ३. अनावश्यक संग्रह अवांछनीय है ।
४. अयोग्यको उपदेश नहीं देना चाहिए ।
५. अत्यधिक लोभ नहीं करना चाहिए ।
६. चिन्ता चिताके समान कही गयी है ।
७ जो हो गया है- उसके लिए शोक करना निरर्थक है तथा भविष्यकी भी चिन्ता नहीं करनी चाहिए ।
( चौबीस श्लोकों पर चौबीस लोक कथाएँ)
इस प्रकारकी हजारों सूक्तियाँ (सुभाषित) श्री नाहटाजी के निबंधों में गुम्फित हैं । आत्माभिव्यक्ति निबन्धकलाकी एक विशिष्ट आधारभूमि है । ऐसी स्थिति में श्री नाहटाके विचारात्मक एवं आलोचनात्मक लेख विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं ।
भाषा विषयक उदारता
श्री नाहटाने तत्सम तद्भव - देशज शब्दोंको उपयोग करते हुए अन्य भाषाओंके भी प्रचलित शब्दों को अपनी अभिव्यक्तिको सक्षम बनानेके लिए अपनाया है । साथ ही साथ कलाके लिए सिद्धान्तकी पूर्ण उपेक्षा करते हुए, मानवमात्रके हितको ध्यान में रखा और तदनुकूल साहित्य सर्जना की तथा इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए वे अपनी साधनामें संलग्न हैं :
पद-स्थापना, नामोल्लेख, परस्पर, विचित्र, श्रद्धा-विशेष, मोक्ष, प्रभावविभूति विभ्रम, आध्यात्मिक जागृति, ऐतिहासिक, विकसित, प्रफुल्लित, व्यक्ति, कौटुम्बिकता, सहानुभूति, शान्ति, क्लान्ति और गौरवगाथा आदि शब्दों के साथ श्री नाहटाजीने बतीसी, शामिल, जगह, हुक्म, सर करना, जरूरी, हाकिमी, लगभग, परवाने, रक्के, नकलें इस्तेमाल, जबरदस्त, बात, असलियत, ख्याल, नामठाम, जहाज, कंथा, खटोली, खंखेरना, कोरे पन्ना, चौंरी मांडना, असली रूप पुन्य, सासू छानना, अटपटी बातों, कइयों, हिवाली गूढा गर्ज, गुटकों, हकीकत ख्यात, फिट करना, पधारना गाड़ियाँ, सौत, लोरियाँ, वाह, वाह, खूब, खूब, बहार, घटिया, विचरना, चौमासा, आदि हजारों शब्दों-क्रियाओं आदिका पर्याप्त संख्या में प्रयोग किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि श्री नाहटा गो० तुलसीदासजीके निम्नस्थ छंदमें मुखरित भाषा विषयक मान्यता के अनुयायी हैं
का भाषा का संस्कृत प्रेम चाहिए साँच । काम जो आवै कामरी, का ले करे कमाँच ।
आदर्शवादी परम्पराके पोषक श्री नाहटाजीके आलोचनात्मक तथा शोध-परक निबंध बड़े ही महत्व पूर्ण हैं । इनमें सर्वत्र ठोस चिन्तन तथा निष्पक्ष उद्भावना अकाल प्रमाणोंसे परिपुष्ट है । इस प्रकारके निबन्धों में तार्किक शैली प्रधानरूपसे अंगीकृत है ।
आपकी शैली विविधरूप द्रष्टव्य हैं । इसमें कहीं भी कृत्रिमता नहीं है । यदि भावनाप्रधान निबंधों में दार्शनिकता एवं मनोवैज्ञानिकताका अनोखा समन्वय है तो लोकसाहित्य विषयक लेखों में (विशेषतः लोक-कथाओं एवं गाथाओं के विवेचनात्मक अनुशीलन में) व्याख्यात्मक शैली ग्राह्य कही जा सकती है । विषयानुसार कहीं वाक्य छोटे हैं तो कही लम्बे । कहीं तत्सम शब्दों का बाहुल्य है तो कहीं देशज शब्दोंकी अधिकता है । यों तो सहजता सर्वत्र विद्यमान है, लेकिन कहीं-कहींपर गंभीर निबंधोंमें गहन चिन्तनके कारण, क्लिष्टता भी आ गयी है और दार्शनिकता के कारण साधारण जनमानसके लिए ऐसे निबंध दुरुह हो गये हैं । समयाभाव के कारण जैसा मैं लिखना चाहता था वैसा न लिख सका । फिर भी श्रद्धेय श्री नाहटाजी के प्रति जो एक लम्बे समय से आदरकी भावना मेरे मानस में समाविष्ट थी, उसे यहाँ व्यक्त करनेका प्रयास अवश्य किया है ।
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जीवन परिचय : ८७
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