Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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अवलोकनमें आई हैं' उनमेसे बहतसे कवि और उनकी रचनायें हिन्दी साहित्य संसारमें अभी तक अज्ञात सी हैं। (भारतीय साहित्य, वर्ष ८ अंक ४)
'कवयित्री पदमाके तीन अप्रकाशित गीत'का प्रारंभिक अंक उपक्रमात्मक है, जिसका आरंभ निबंधकी प्रासंगिक भावनाकी परिपूर्णताका सांकेतिक चिह्न है :
'चारण जातिमें कवि तो हजारों हुए हैं और ख्यात एवं बात आदि गद्य रचनाओंके लेखक कई चारण विद्वान् हो गये हैं। पर इस जातिमें कवयित्रियां दो-चार ही हुई हैं जब कि शक्ति के अवताररूपमें कई चारण देवियाँ समय-समय पर प्रकट होकर चारणों एवं राजा-महाराजाओं तथा जन-साधार जाती रही है। करणीजीकी मान्यता तो सर्वत्र प्रसिद्ध है ही। उनकी स्तुतिरूपमें काफी साहित्य रचा गया है। वर्तमान चारण कवयित्री सौभाग्य देवी रचित 'करणी करुणा कुंज'के सम्बन्धमें मेरा लेख प्रकाशित हो चुका है। प्राचीन चारण कवयित्रियोंमें झीमां चारणी और पद्मा चारणी तथा बिरजू बाईका नाम लिया जाता है। इनमें से प्रथम कवयित्री झीमांके मुँहसे कहलाये हुए पद्य खीची अचलदास और लालाजी मेवाड़ी और उमादेकी बातमें प्राप्त होते हैं। ये पद्य वास्तवमें झीमांने ही बनाये थे या बातको लिखने या रचने वालेने भावनाका दूहा अपनी ओरसे जोड़कर झीमांके मुखसे कथा-प्रसंगमें कहला दिये हों, यह विचारणीय है। [विश्वम्भरा, पृ० ५०]
'महाराणा कुम्भारचित गीतगोविन्दका अर्थ शीर्षक निबन्धसे सम्बन्धित उपक्रममें वीरता एवं साहित्यिक निष्ठाका एक विलक्षण समन्वय प्रस्तुत किया गया है जो निबन्धकलाकी एक अविस्मरणीय विभूति है।
'राजस्थानके शासक अपनी वीरताके लिए तो प्रसिद्ध हैं ही, पर साहित्यिक क्षेत्रमें भी उनकी विशिष्ट देन है। संस्कृत, राजस्थानी व हिन्दी तीनों भाषाओंमें राजस्थानके राजाओं, जागीरदारों और ठाकुरों और उनके आश्रित कवियोंकी सैकड़ों रचनाएँ प्राप्त है । मेवाड़का राजवंश अपनी आन-बानके लिए प्रसिद्ध है ही पर १५वीं शताब्दीमें इस राजवंशमें एक ऐसे राणा हए, जिनकी वीरताके साथ-साथ साहित्य और कलाका प्रेम विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं।' [शोध पत्रिका, पृ० ६०]
'जैन-तंत्र-साहित्य' निबन्धका प्रारम्भिक अंश संक्षिप्त होता हआ भी व्यापक है तथा साधारण होनेपर भी असाधारण है । इसमें जैनधर्मकी प्राचीनताके साथ तंत्र-साहित्यकी पुरातनताका भी उल्लेख हुआ है :
"जैनधर्म भारतका एक प्राचीनतम धर्म है। उसके प्रवर्तक चौबीस तीर्थंकर भारतभूमिमें ही पैदा हुए, यहीं साधनाकर उन्होंने सिद्धि प्राप्त की। भगवान ऋषभदेव, जिनका पावन चरित्र भागवत आदि पुराणोंमें भी पाया जाता है, यावत् वेदोंमें भी नामोल्लेख प्राप्त है, जैन मान्यतानुसार सारे ज्ञान-विज्ञान या संस्कृतिके प्रवर्तक आदिपुरुष थे। इसीलिए उन्हें आदिनाथ या आदीश्वर कहा जाता है। नाथपंथके प्रवर्तक भी आदिनाथ माने जाते हैं, पर सम्भव है वे बादके कोई अन्य व्यक्ति हों। प्राचीन जैनागमोंके अनुसार भगवान् ऋषभदेवसे पर्व यह आर्यावर्त भोगभूमि थी । अर्थात उस समयके लोग वक्षोंके फलादिसे अपना जीवननिर्वाह करते थे । असि,मसि और कृषिका व्यवहार तबतक नहीं था। एक बालक और बालिकाका युग्म साथ ही जन्मता और वयस्क हो जानेपर उनका सम्बन्ध पति-पत्नीका हो जाता था।
उनकी समस्त आवश्यकताओंकी पूर्ति दस प्रकारके कल्पवृक्षोंसे होती थी, इसीलिए परवर्ती साहित्यमें कल्पवृक्षकी उपमा इस अर्थ में रूढ़ हो गयी कि जिसके द्वारा मनोवाञ्छितकी पूर्ति हो जाय और वस्तु प्राप्त हो जाय वह कल्पवृक्षके समान है। आदि" [श्री मरुधर केसरी मुनि श्री मिश्रीलालजी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० १२३] साहित्य, इतिहास, भाषा आदिसे सम्बद्ध शोधात्मक निबन्धोंमें एक ओर प्राचीन साहित्यके विनाशकी
जीवन परिचय : ८३
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