Book Title: Nahta Bandhu Abhinandan Granth
Author(s): Dashrath Sharma
Publisher: Agarchand Nahta Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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श्री नाहटाजीका एक स्वरूप प्राचीन ग्रन्थोंके उद्धारक और संग्राहकका भी रहा है। उन्होंने अपने पुस्तकालय श्री अभय जैन ग्रंथालयमें लगभग चालीस हजार प्राचीन पाण्डुलिपियोंका संग्रह किया है
और उसे अधिक समृद्ध बनानेके लिए प्रतिपल जागरूक हैं। उन्होंने सहस्रशः हस्तलिखित ग्रन्थोंको द्रव्यकी महती राशिसे क्रय किया है और सरस्वती उद्धारके पवित्र कार्यको सम्पादित करनेके लिए वे कहीं भी जानेको समुत्सुक एवं तत्पर रहते हैं । उनकी इसी भावनाने उन्हें दुर्लभ, प्राचीन, पाण्डुलिपियोंके समृद्ध संग्राहकके रूपमें अखिल भारतीय स्तरपर ख्याति दान किया है।
श्री नाहटाजी कलाकृतियोंके प्रेमी-संग्राहक हैं। उन्होंने अपनी इसी कलाप्रियताके कारण शंकरदान कला भवन जैसी सुविख्यात संस्थाको जन्म दिया है। आज श्री नाहटाजीको प्राचीन कलात्मक वस्तु विक्रय करनेवाले घेरे रहते हैं और प्रतिदिन सैकड़ों रुपयोंका क्रय होता रहता है।
साहित्यसंसारमें श्री नाहटाजी प्रखर आलोचक, प्राचीन एवं मध्यकालीन हिन्दी साहित्यके गहन अध्येता एवं अध्यात्मप्रेमी निबंधलेखकके रूपमें सुविख्यात हैं। बहुत कम सुधी इस तथ्यको जानते हैं कि श्री नाहटाजी अपने उद्दाम संयमशील, मर्यादाबद्ध यौवनमें अत्यन्त समर्थ कवि रहे हैं। उनकी भावधारा सहजोद्भूत प्रतीत होती है और उनका चिन्तन जैनदर्शनभक्ति प्रवण ।
श्री नाहटाजी भक्तिक्षेत्रके मुक्तक कवि रहे हैं। उन्होंने अधिकांशतः तीर्थंकरोंके प्रेरणा-प्रसू पावन चारित्र्य गुणोंको अपनी कविताका विषय बनाया है। श्री पार्श्वनाथ जिनाष्टकमें वे प्रभु पार्श्वनाथके अनुपम त्याग, असीम सहिष्णुता और धैर्य-गाम्भीर्य पर मुग्ध हैं।
सागर सम गंभीर धीर मंदार गिरी सम, विजयी कर्म सुवीर और नहीं आवै ओपम । नाग भयंकर विषधर देखत विष तजि दोनौ, रहे चरण तुम देव सेव करतो गुण लीनौ ।
भक्त कविका विश्वास है कि श्री पार्श्वप्रभु सर्वज्ञ विज्ञ है। सेवकोंके आश्रय और सन्मति है । कविका इष्ट सांसारिक सम्पत्ति अर्जन नहीं है। वह पार्श्वभक्तिके गणप्रकर्षसे परमगतिप्राप्तिका अभिलाषी
हो सर्वज्ञ विज्ञ सब भावोंके तुम सन्मति । सेवक जन आधार सार तारो यह विनती। अगर मदा मन मुदा भक्तिभर ललित गुणस्तुति । तव पद वंदन कर्म निकंदन, प्राप्ति परम गति ।।
आराध्यके अगाध गुणगरिमा भावमें निमज्जित भक्त कवि नाहटाका मानस यदाकदा अहेतुमें हेतुकी कल्पना भी करने लगता हैरुचिर शान्त अम्लान्त पार्श्वमुख अतिहि मनोहर, देख इन्दु भयो मन्दु सदा आकाश कियो घर !
प्रभु पार्श्वनाथका मुख अत्यन्त मनोहर है । चन्द्रमा उसे देखकर मन्द हो गया और आकाशमें रहने रहने लगा है। कवि प्रभुके 'पारस' नामका माहात्म्य स्मरण कर अत्यन्त आह्लादित अनुभव करता है। उसकी दृष्टिमें पार्श्व नाम अपने आपमें गुणधाम है। पार्श्वनाम गुणधाम अहा! पारस पत्थर भी! करे लोहको स्वर्ण, कहें फिर क्या प्रभुवर को!
कवि नाहटाके विविध भक्तिस्तवनोंमें श्री 'महावीर स्तवन' का उत्कृष्ट स्थान है। कविकी शैली अत्यन्त प्रौढ़, उक्तिमें सहज आलंकारिक छटा और भावोंमें अजस्र प्रवाह सब मिलकर सहृदय सामाजिकको भक्तिरसाम्बधिमें अवगाहन प्रदान करते हैं। प्रारंभ-पदमें कवि वर्ण्यके अगाध गणगणिमाविमंडित चरित्र और अपने अल्पज्ञत्वकी तुलनाके व्याजसे अपना विनयभाव प्रस्तुत करता है
सिद्धारथ कुल कमल दिवाकर, त्रिशला कुक्षी मानस हंस ।
चरम जिनेश्वर महावीर हैं, मंगलमय त्रिभुवन अवतंस ।। ५८ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रंथ
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