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कर्ण
कर्ण
वैकर्तन' हो गया ( आदि० ६७ । १४४---१४७)। (सभा० ३० । २०)। युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें रथिकुन्तीके द्वारा इसका जलमें परित्याग (आदि. ६७ । श्रेष्ठ कर्णका आगमन (सभा०३४ । ७)। यह अङ्ग १३९; आदि० ११०।२२)। इसे ब्राह्मणके लिये कुछ और वङ्ग देशका राजा था और इसने जरासंधको परास्त भी अदेय नहीं था ( आदि० ६७ । १४३)। ब्राहाण- किया था (सभा० ४४ । ९-११)। द्यूतके लिये आये रूपमें याचक होकर आये हुए इन्द्रको इसके द्वारा कवच हुए राजा युधिष्ठिर कर्णसे भी मिले थे (सभा० ५८ । कुण्डलका दान एवं प्रसन्न हुए इन्द्रसे इसको 'शक्ति' २३ ) । द्यूतसभामें कर्ण भी उपस्थित था और द्रौपदीको नामक अमोघ अस्त्रकी प्राप्ति (आदि०६७।१४४-१४६; दावपर लगानेसे बहुत प्रसन्न हुआ था (सभा० ६५ । आदि. ११० । २८-२९)। यह सूर्यदेवका सर्वोत्तम ४४)। इसके द्वारा विकर्णको फटकारते हुए द्रौपदीके अंश था (आदि० ६७ । १५०)। गङ्गाके प्रवाहमें हारे जाने की घोषणा और द्रौपदी तथा पाण्डवोंके वस्त्र बहते हुए इस बालक कर्णका अधिरथके हाथमें पहँचना उतार लेनेके लिये दुःशासनको आदेश (सभा०६८ । ( आदि. ५०० । २३)। अधिरथ तथा उसकी पत्नी २७-३८)। इसका द्रौपदीको दूसरा पति चुन लेनेके राधाका इसको अपना पुत्र बना लेना ( आदि. ११०। लिये कहना और उसे दासी बताना (सभा० ७१। २३)। इसका 'वसुषेण' नाम होनेका कारण (आदि. १-४) । वनमें चलकर पाण्डवोंका वध करने के लिये ११० । २४)। इसकी सूर्य-भक्ति (आदि० ११० । दुर्योधनको इसकी सलाह ( वन० ७ । १६-२०)। २५)। इसकी ब्राहाण-भक्ति (आदि० ११०।२६)। द्वैतवनमें पाण्डवोंके पास चलने के लिये इसका दुर्योधनको इसका कर्ण' और 'वैकर्तन' नाम होने का कारण उभाड़ना ( वन० २३७ अध्याय )।घोषयात्राका प्रस्ताव (आदि. ११० । ३१)। द्रोणाचार्यके समीप अध्ययनके बताना (वन० २३८ । १९-२०)। धृतराष्ट्र के आगे लिये इसका आगमन ( आदि. १३१ । ११ )। घोषयात्राका प्रस्ताव रखना (वन० २३९ । ३-५)। अध्ययनावस्थामें अर्जुनसे इसकी स्पर्धा ( आदि. द्वैतवनमें गन्धर्वोद्वारा इसकी पराजय (वन० २४१ । १३१ । १२)। रङ्गभूमिमें इसकी अर्जुनसे स्पर्धा तथा ३२)। मार्गमें इसके द्वारा दुर्योधनका अभिनन्दन अस्त्र-कुशलता ( आदि. १३५ । ९-१२)। रङ्ग- (वन० २४७ । १०-१५)। दुर्योधनको अनशन न भूमिमें दुर्योधनद्वारा इसका सम्मान (आदि० १३५ ।। करनेके लिये इसका समझाना (वन० २५० अध्याय)। १३-१४) । अर्जुनद्वारा इसे रङ्गभूमिमें फटकार (आदि. भीष्मद्वारा इसकी निन्दा, इसके क्षोभपूर्ण वचन और १३५ । १८) । अर्जुनसे लड़नेके लिये इसका रङ्गभूमिमें इसका दिग्विजयके लिये प्रस्थान (वन० २५३ अध्याय)। उद्यत होना (आदि. १३५ । २०)। रङ्गभूमिमें इसके द्वारा समूची पृथ्वीपर दिग्विजय और हस्तिनापुरमें कृपाचार्यका इससे परिचय पूछना और इसका लज्जित इसका स्वागत ( वन० २५४ अध्याय ) । कर्णका होना ( आदि० १३५ । ३४)। दुर्योधनद्वारा इसका दुर्योधनको यशके लिये सलाह देना ( वन० २५५ अङ्गदेशके राजपदपर अभिषेक (आदि. १३५ । ३८)।
अध्याय )। कर्णद्वारा अर्जुनके वधकी प्रतिज्ञा ( बन० इसके द्वारा दुर्योधनको अटल मित्रताका वरदान (आदि०
२५७ । १६-१७ )। सूर्यके समझानेपर भी इसका १३५ । ४१)। इसका रङ्गभूमिमें अपने पिता अधिरथ
कवच कुण्डल देनेका ही निश्चय रखना (वन० ३००। का अभिवादन (आदि० १३६ । २)। भीमसेनद्वारा
२७-३९)। इन्द्रसे शक्ति लेकर ही उन्हें कवच-कुण्डल इसका तिरस्कार (आदि० १३६ । ६) । द्रुपदसे देनेका निश्चय ( वन.३०२ । १७ के बाद दाक्षिणात्य पराजित होकर इसका पलायन (आदि० १३७ । २४ के पाठ )। कर्णका कुन्तीके गर्भसे जन्म, कुन्तीका उसे बाद दाक्षिणात्य पाठ ) । द्रौपदीके स्वयंवरमें इसका पिटारीमें रख कर अश्वनदीमें बहा देना तथा अमृतसे प्रकट आगमन (आदि. १८५।४)। स्वयंवरमें लक्ष्यवेधके हुए कवच-कुण्डल धारण करनेके कारण इसका नदीमे लिये उद्यत हुए कर्णको देखकर सूतपुत्र होनेके कारण जीवित रह सकना (वन० ३०८ । ४-७-२७)। इसका वरण न करनेके सम्बन्धमें द्रौपदीका वचन पिटारीमें बंद हुए कर्णका अधिरथ और राधाके हाथमें (आदि. १८६ । २३)। द्रौपदीके स्वयंवरमें अर्जुनद्वारा ___ आना (वन० ३०९ । ५-६)। राधाद्वारा कर्णका विधिइसकी पराजय (आदि० १८९ । २२)। पराक्रमपूर्वक पूर्वक पालन ( वन० ३०९ । ११-१२ ) । इसका द्रुपदको पराजित कर पाण्डवोंको कैद करने के लिये इसका 'वसुषेण' और 'वृष' नाम पड़नेका कारण ( बन० दुर्योधनको परामर्श (आदि० २०१।१-२१)। ३०९ । १३-१४)। हस्तिनापुरमें इसकी शिक्षा और इसको द्रोणको फटकार (आदि० २०३ । २६)। दुर्योधनसे मित्रता (वन० ३०९ । १७-१८)। इन्द्रसे राजसूय-दिग्विजयके समय भीमसेनद्वारा इसकी पराजय उनकी शक्ति माँगना (वन० ३१०।२१) । इन्द्रको
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