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द्रौपदी सत्यभामा संवादपर्व
द्वारका (द्वारवती या द्वारावती)
सुभद्रासहित द्रौपदीका अपनीसासके पीछे जाना (आश्रम १६ । ३०)। द्रौपदीका युधिष्ठिरसे अपनी सासके दर्शनकी इच्छा प्रकट करना और अन्तःपुरकी सभी स्त्रियोंको कुन्ती एवं गान्धारीके दर्शनके लिये उत्सुक बताना ( आश्रम. २२ । १४-२२)। द्रौपदी आदिका कुन्ती, गान्धारी और धृतराष्ट्रको प्रणाम करना (आश्रम २४ । १९)। संजयका ऋषियोंसे द्रौपदीका परिचय देते समय इन्हें मूर्तिमती लक्ष्मी बताना (आश्रम० २५ । ९)। द्रौपदीका अपने पतियोंके साथ महाप्रस्थानके पथपर अग्रसर होना (महाप्रस्था० १ । १९-२०)। मार्गमें द्रौपदीका गिरना और भीमसेनके पूछनेपर युधिष्ठिरका इनके पतनका कारण बताना (महाप्रस्था. २। ३-६ )। स्वर्गलोकमें युधिष्ठिरका दिव्यकान्तिसे सूर्यदेवकी भाँति प्रकाशित होती हुई द्रौपदीका दर्शन करना और इन्द्रका स्वर्गलोककी लक्ष्मी बताकर इनका
और इनके पुत्रोंका परिचय देना (स्वर्गा०४।१०-१४)। महाभारतमें आये हुए द्रौपदीके नाम-पाञ्चाली, कृष्णा, याज्ञसेनी, द्रुपदात्मजा, द्रुपदसुता, पाञ्चालराजदुहिता
आदि । द्रौपदी-सत्यभामासंवादपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर
पर्व ( अध्याय २३३ से २३५ तक)। द्रौपदीहरणपर्व-वनपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय
२६२ से २७१ तक)। द्वयक्ष-एक भारतीय जनपद: जहाँके राजा युधिष्ठिरके लिये भेंट लेकर आये थे ( सभा० ५१ । १७)।
ही उस गढ़का प्रधान फाटक था। कम-से-कम अठारह रण-दुर्मद क्षत्रिय वीर उस दुर्गकी सुरक्षामें सदा संलग्न रहते थे। ( सभा० १४ । ५०-५५ ) । द्वारका पुरुषोत्तम श्रीकृष्णका प्रधान निवासस्थान थी। वह अमरावतीपुरीसे भी अधिक रमणीय थी। वहाँ वृष्णिवंशियोंके बैठने के लिये एक सुन्दर सभा थी, जो दाशाहीके नामसे प्रसिद्ध थी । उसकी लम्बाई-चौड़ाई एक-एक योजन थी। उसमें बलराम और श्रीकृष्ण आदि सभी वृष्णि और अन्धक वंशके लोग बैठते और सम्पूर्ण लोक-जीवनकी रक्षामें दत्तचित्त रहते थे ( सभा०३८ । पृष्ठ ८०६)। द्वारकाके रमणीय राजसदन सूर्य और चन्द्रमाके समान प्रकाशमान तथा मेरुपर्वतके शिखरोंकी भाँति गगनचुम्बी थे। उन भवनोंसे विभूषित द्वारकापुरीकी रचना साक्षात् विश्वकर्माने की थी। इसके चारों ओर बनी हुई चौड़ी खाइयाँ इसकी शोभा बढ़ाती थी। यह पुरी ऊँची श्वेत चहारदीवारीसे घिरी थी। वहाँ नन्दनवन, मिश्रकवन, चैत्ररथवन और वैभ्राज नामक वन शोभा देते थे । रमणीय द्वारकापुरीकी पूर्वदिशामें उत्तुङ्ग शिखरोंवाला रैवतकपर्वत उस पुरीका आभूषणरूप जान पड़ता था । दक्षिण लतावेष्ट, पश्चिममें सुकक्ष और उत्तरमे वेणुमन्त नामक पर्वत इसकी शोभा बढ़ाते थे। इन पर्वतोंके चारों ओर अनेकानेक मनोहर वन-उपवन वहाँकी श्रीवृद्धि करते थे। पुरीकी पूर्वदिशामें एक रमणीय पुष्करिणी थी, जिसका विस्तार सौ धनुष था। महापुरी द्वारका पचास दरवाजोंसे सुशोभित थी। सुन्दर-सुन्दर महल और अट्टालिकाएँ उसकी शोभा बढ़ाती थीं । तीखे यन्त्र, शतघ्नी ( तोप ), विभिन्न यन्त्रोंके समुदाय और लोहेके बने हुए बड़े-बड़े चक्र उस पुरीकी रक्षाके लिये लगाये गये थे। पुरीका विस्तार छानये योजन था। उसमें जाने के लिये आठ बड़ी बड़ी सड़के थी और सोलह बड़े-बड़े चौराहे शोभा पा रहे थे। शुक्राचार्यकी नीति के अनुसार उस नगरीका निर्माण किया गया था (सभा० ३८ । पृष्ठ ८१२ से १७ तक)। तीर्थयात्राके अवसरपर यहाँ अर्जुन पधारे थे और उनके स्वागतका बहुत ही सुन्दर आयोजन किया गया था। यहींसे उन्होंने सुभद्राका अपहरण किया था ( आदि० अध्याय २१७ से २१९ तक ) । द्वारकापुरीपर शाल्वका आक्रमण और वृष्णिवंशी वीरों तथा भगवान् श्रीकृष्णद्वारा शाल्वराजका सेनासहित संहार करके इस पुरीकी रक्षा (वन० अध्याय १५ से २२ तक)। ( पुराणान्तरोंके वर्णनके अनुसार मोक्षदायिनी सात पुरियों से एक यह भी है । विभिन्न पुराणों में इसकी महिमाका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है।) द्वारका और वहाँका पिण्डारक
द्वादशभूज-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य४५/५७)।
द्वादशाक्ष-स्कन्दका एक सैनिक (शल्य. ४५। ५८)।
द्वापरयुग-सत्ययुगसे तृतं य युग । हनुमानजीद्वारा इस
युगके धर्मका वर्णन (वन० १५५ । २७-३२) । द्वारका ( द्वारवती या द्वारावती )-रैवतक पर्वतसे
सुशोभित रमणीय कुशस्थली, जहाँ जरासंधसे वैर हो जानेपर समस्त यादव श्रीकृष्णकी सम्मतिसे एकत्र होकर रहने लगे। कुशस्थली दुर्गकी ऐसी मरम्मत करायी गयी थी कि वह देवताओंके लिये भी दुर्गम हो गया था। उस दुर्गमें रहकर स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकती थीं । फिर वृष्णिकुलके महारथियोंकी तो बात ही क्या थी । रैवतककी दुर्गमताका विचार करके यदुवंशी वहाँ निर्भय एवं प्रसन्न रहते थे। रैवतक या गोमान दुर्गकी लम्बाई तीन योजनकी है । वहाँ एक-एक योजनपर सेनाओंकी तीन-तीन दलोंकी छावनी थी। प्रत्येक योजनके अन्तमें सौ-सौ द्वार थे, जो सेनाद्वारा सुरक्षित थे। वोरोंका पराक्रम
म. ना. २१
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