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शिव
( ३५० )
शिव
अपनी अंगुलीसे भस्म प्रकट करना ( वन० ८३ । ११७-१२५)। इनके द्वारा मङ्कणकको वरदान (वन० ८३ । १३२-१३४)। इनके द्वारा राजा सगरको संतान प्राप्ति के लिये वरदान (वन० १०६ । १५.१६)। इनका राजा भगीरथको वर देना (वन०१०९ । १-२)। गङ्गाको सिरपर घारण करना (वन. १०९।९)। इनके वीर्यसे मिजिकामिजिक नामक जोड़ेकी उत्पत्ति (वन० २३१ । १०)। इनकी भद्रवट यात्रा (वन. २३१ । १४-५४ ) । देवासुरसंग्राममें महिषासुरके वधके लिये इनका स्कन्दको याद करना (वन० २३ । ९०)। इनके द्वारा जयद्रथको वरप्रदान (वन० २७२। २८)। इनके द्वारा नरसखा नारायणकी महिमाका वर्णन (वन० २७२ । ३१-७७)। इनका भीष्मके वधके लिये अम्बाको वरदान देना (उद्योग १८७१२-१५)। इनका द्रुपदको एक कन्या उत्पन्न होनेका वर देना (उद्योग० १८८ । ४-५)। भगवान् शिव मेरुपर्वतपर उमाके साथ रहते हैं। ये एक लाख वर्षातक गङ्गाजीको अपने सिरपर ही धारण किये रहे (भीष्म०६।२५-३१)। शाकद्वीपमें इनकी आराधना की जाती है ( भीष्मा १५ । २८ ) । कुपित ब्रह्माको शान्त करनेके लिये इनका उनके पास जाना ( द्रोण. ५२। ४३ )। क्रोध शान्त करनेके लिये ब्रह्मासे इनकी प्रार्थना और इन दोनोंका परस्पर वार्तालाप (द्रोण. ५३ । १-१४)। पुण्यजनोद्वारा पृथ्वीदोहनके समय ये बछड़ा बने थे (द्रोण. ६९ । २४)। इनका नर-नारायणस्वरूप श्रीकृष्ण और अर्जुनका स्वागत करना और उनको अभीष्ट वर देनेको कहना ( अर्जुनका स्वप्न ) (द्रोण० ८० । ५१-५२) । अर्जुनको पाशुपतास्त्रका दान (अर्जुनका स्वप्न ) (द्रोण० ८१ । २१. २२)। ब्रह्मासहित देवताओंकी प्रार्थनापर प्रसन्न होकर इन्द्रको कवच प्रदान करना (द्रोण० ९४ । ३१-६३)। सोमदत्तको पुत्र होनेका वर देना और अपनेको श्रीकृष्णसे भिन्न बताना (द्रोण० १४४ । १६-१८)। नारायणद्वारा भगवान् शिवकी आराधना, स्तुति और इनसे वरप्राप्तिकी कथा (द्रोण. २०१। ५६-९६)। व्यासजीका अर्जुनको भगवान् शिवकी महिमा बताना और त्रिपुर-वधके समय उनके रथ आदि सामग्रीका उल्लेख करना (द्रोण. २०२ अध्याय)। त्रिपुराँसे भयभीत देवताओंको अभयदान देना (कर्ण० ३३ । ६१)। देवताओंका आधा बल लेकर त्रिपुर-वधके लिये उद्यत होना (कर्ण०३४।१४)। इनके विचित्र रथ आदिका वर्णन (कर्ण० ३४ । १६-५७)। इनके द्वारा वृषभके खुरोका चीरा जाना और घोड़ोंका स्तन काटना
(कर्ण० ३४ । १०५)। इनके द्वारा त्रिपुरोंका वध (कर्ण०५४।११४)। इनका परशुरामको वरदान देना (कर्ण० ३४ । १४५-१४७)। कर्ण और अर्जुनके द्वैरथ युद्ध, इन्द्रके पूछनेपर अर्जुनकी विजय बतलाना (कर्ण०८७६९-८५) । मङ्कणक मुनिपर कृपा (शल्य०३८ । ५२-५८) । स्कन्दको पार्षदरूपमें एक महान् असुर प्रदान करना (शल्य०४५। २६)। स्कन्दको पताका और असुर-सेना देना (शल्य. ४६ । ४६-४८)। अरुन्धतीकी परीक्षा लेना और उन्हें वर देना (शल्य०४८ । ३८-५४) रातमें आक्रमण करते हुए अश्वत्थामाके अस्त्रोको निगल जाना (सौप्तिक.
१-१.)। अश्वत्थामाके आत्मसमर्पणसे प्रसन्न होकर उसके शरीरमें प्रवेश करना और उसे एक खड्ग प्रदान करना (सौप्तिक०७।६६)। इनका कुपित होकर अपने लिङ्गको काट डालना (सौप्तिक०१७। २१)। इनके कोपसे देवता यज्ञ और जगत्की दुरवस्था (सौप्तिक.१८।४-१९)। इनकी कृपासे सबका स्वस्थ होना (सौप्तिक. १८ । २०--२३)।ये गजासुरके चर्मको वस्त्रकी भाँति धारण करते हैं। सर्वस्वसमर्पण नामक यज्ञमें अपने-आपको भी होमकर देवताओंके भी देवता हो गये हैं (शान्ति०२०।१२)। परशुरामजीने इनसे अनेक प्रकारके अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये थे (शान्ति० ४९ । ३)। इन्होंने ब्रह्माजीके दण्डनीति-शास्त्रको सबसे पहले स्वयं ही ग्रहण करके संक्षिप्त किया । इनसे इन्द्रने उसको ग्रहण किया (शान्ति० ५९ । ८०-८२)। एक मरे हुए ब्राह्मणबालकको जीवन तथा गीध एवं गीदड़को भी भूख मिटनेका वर देना (शान्ति. १५३ । ११४-१५)। ब्रह्मासे खड्न प्राप्त करके दानवोंको परास्त करना (शान्ति०१६ । ५४-६३)। फिर भगवान् शिवका उसे भगवान् विष्णुके हायमें देना (शान्ति. १६६ । ६६)। कुपित हुए ब्रह्माजीके क्रोधको शान्त करना (शान्ति. २५७ । ६-१२)। वृत्रासुरको मारनेके लिये इन्द्रको प्रोत्साहन और अपने अंशसे उनमें प्रवेश करना (शान्ति० २८१ । ३४-३८)। दक्ष-यज्ञके विषयमें पार्वतीजीसे वार्तालाप और दक्ष-यशका नाश ( शान्ति. २८३ । २३-४४ ) । पार्वतीको सान्त्वना देना (शान्ति. २८४ । २४-२८)। अपने शरीरसे वीरभद्रको प्रकट करना (शान्ति० २८४ । २९)। दक्षके शरणागत होनेपर हवनकुण्डसे प्रकट हो उनपर कृपा करना (शान्ति. २८५। ५८-६०) । सहस्रनामद्वारा दक्षके स्तुति करनेपर उनको वरदान देकर अन्तर्धान होना (शान्ति० २८४ । १८२-१९.)।
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