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संवर्त
संहाद (संहाद
कृतज्ञ और धर्मश थे। अपनी दिव्य कान्तिसे सूर्यकी ३०-३१)। इनका मरुत्तको अपना साथ छोड़ देनेके भाँति प्रकाशित होते थे। प्रजा इनकी उपासना करती लिये बाध्य करना (आश्व०६।३१-३३) । मरुत्तसे थी। उत्तम गुणसम्पन्न और श्रेष्ठ आचार-विचारसे युक्त थे अपने पक्षमें रहने की प्रतिज्ञा कराकर उन्हें उनका यज्ञ (आदि० १७०। १५---१९)। इनके साथ तपतीके कराने की स्वीकृति देना (आश्व० . । २४-२७)। विवाहके लिये सूर्यदेवका संकल्प (आदि. १७०।२०)। मरुत्तको सुवर्णकी प्राप्तिके लिये शिवजीकी नाममयी स्तुतिका एक दिन ये पर्वतके समीपवर्ती उपवनमें शिकार खेलने उपदेश करना (आश्व०८।१३-३२ तक दाक्षिणात्य के लिये गये। वहाँ थकावटके कारण इनके घोड़ेकी मृत्यु
पाठसहित)। अग्निदेवको जला डालनेकी धमकी देना हो गयी। फिर ये अकेले पैदल ही घूमने लगे। घूमते- (आश्व० ५। १९)। इन्द्रके वज्रका स्तम्भन करना घूमते उपवनमें इन्हें एक विशाललोचना दिव्य कन्या (आश्व० १०।७)। इन्द्रको मरुत्तकी यज्ञशालामें दिखायी दी (वह सूर्यकन्या तपती थी) (आदि. बुलाना (भाश्व० १०।२०)। इन्द्रको ही आवश्यक १७० । २५-२३)। तपतीके रूप-सौन्दर्यको देखकर
कार्यका उपदेश देने तथा देवोका भाग निश्चित करने के इनका मोह (भादि. १७०।२४-१४)। इनका उस लिये कहना (आश्व० १०।२५)। कन्यासे परिचय पूछना । उसका अदृश्य होना तथा संवर्तक-(१) कश्यप और कद्रूसे उत्पन्न एक प्रमुख नाग उसके वियोगसे इनकी मूर्छा (आदि. १७० । ३६- (आदि. ३५।१०)। (२) माल्यवान् पर्वतपर ४४)। तपतीद्वारा इनको आश्वासन (आदि. १७१। सदा प्रज्वलित रहनेवाले अग्निदेवका नाम ( भीष्म । ४-५) । गान्धर्व विवाहद्वारा अपनी पत्नी बननेके २७-२८)। लिये इनकी तपतीसे प्रार्थना ( आदि० १७१ । - संवर्तवापी-एक दुर्लभ तीर्थ, जहाँ स्नान करनेसे मनुष्य १९)। तपतीकी प्राप्तिके लिये इनके द्वारा सूर्यकी
__ सुन्दर रूपका भागी होता है ( वन० ८५ । ३.)। आराधना और वसिष्ठजीका स्मरण ( भादि० १७२ ।
संवह-जो देवताओंके आकाशमार्गसे जानेवाले विमानोंको १२-१३) । वसिष्ठकी कृपा एवं प्रयत्नसे इनको तपती
स्वयं ही वहन करती है, वह पर्वतोंका मान मर्दन की प्राप्ति ( आदि. १७२ । १४-३२ )। तपतीके
करनेवाली चतुर्थ वायु संवह नामसे प्रसिद्ध है। इसका साथ इनका विधिपूर्वक विवाह ( आदि. १७२ ।
विशेष वर्णन (शान्ति० ३२८ । ४१-४३)।।। ३३)। तपतीके साथ इनका विहार (आदि. १७२ । ३७)। इनके राज्यमें बारह वर्षतक अनावृष्टि (आदि.
संवृत्त-एक कश्यपवंशी नाग (उद्योग.१०३।१४)। १७२ । ३८)। ये सायं-प्रातःस्मरणीय नरेश हैं संवृत्ति-ब्रह्माजीको सभामें रहकर उनकी उपासना करनेवाली (भनु० १६५ । ५४)।
एक देवी (सभा० ११ । ४३)। महाभारतमें आये हुए संवरणके नाम-आजमीढ, संवेद्य-एक तीर्थ, जहाँ प्रातः-संध्याके समय स्नान करनेसे आक्ष, पौरव, पौरवनन्दन, ऋक्षपुत्र आदि ।
विद्या प्राप्त होती है (वन० ८५।१)। संघर्त--महर्षि अङ्गिराके तृतीय पुत्र । शेष दोके नाम संशप्तकवधपर्व-द्रोणपर्वका एक अवान्तर पर्व (द्रोण. बृहस्पति और उतथ्य है (भादि. ६६। ५)। ये इन्द्र- अध्याय १७ से ३२ तक)। सभामें रहकर देवराजकी उपासना करते हैं (सभा० संश्रत्य-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक (अनु.।। ७ । १९)। ब्रह्म.जीकी सभामें उपस्थित हो उनकी उपासना करते हैं (सभा० ११ । १२ ) । इन्होंने
संस्थान-एक देश, जहाँके सैनिकोंको भीष्मकी रक्षाका पक्षावतरणतीर्थमें राजा मरुत्तका यज्ञ कराया था (वन०
__ आदेश दिया गया था (भीष्म० ५१।७)। १२९ । १३-१.)। बृहस्पतिजीके साथ स्पर्धा रखनेके कारण इन्होंने महाराज मरुत्तका यज्ञ कराया थाद्रोण संहतापन-ऐरावतकुलका एक नाग, जो जनमेजयके ५५ । ३०)। बृहस्पति जीके इनकार करनेपर इन्होंने सर्पसत्रमे जल मरा था (आदि. ५७। ११-१२)। भरुत्तका यश कराया ( शान्ति० २९ । २०-२१)। संहनन-राजा पूरुके प्रपौत्र एवं मनस्युके पुत्र । माताका ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये गये थे नाम सौवीरी । ये शूरवीर एवं महारथी थे (आदि०९४ । (शान्ति० ४७ । ९)। महाप्रयाणके समय भीष्मजीके ५-७)। पास गये थे ( अनु० २६ । ५ ) । ये अङ्गिराके आठ संवाद (संह्लाद )-हिरण्यकशिपुका द्वितीय पुत्र, प्रह्लादका पुत्रोंमेंसे एक थे, शेषके नाम थे-बृहस्पति, उतथ्य, पयस्य, छोटा भाई । इनके शेष भाइयोंके नाम----प्रहाद, अनुवाद, शान्ति, घार, विरूर और सुधन्वा (अनु० ८५।। शिवि तथा बाष्कलि थे ( आदि०६५। १-१८)।
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