Book Title: Mahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Author(s): Vasudevsharan Agarwal
Publisher: Vasudevsharan Agarwal

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Page 287
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra राम (रामचन्द्र ) www.kobatirth.org ( २८३ ) अध्याय पदपर अभिषेक और उन्हें अमरत्व प्रदान । पुनः दलबलसहित पुष्पक विमानद्वारा अयोध्या में आकर धर्मपूर्वक राज्यका पालन । इनकी आज्ञासे शत्रुघ्नद्वारा मथुरा निवासी मधुपुत्र लवणासुरका वध । इनके द्वारा दस अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान । इनके राज्यकी विशेषता ( सभा० ३८ । २९ के बाद, पृष्ठ ७९४ से ७९५ तक ) । सरयूके गोप्रतार तीर्थ में सेवकों वाहनोंके साथ स्नानकर श्रीराम अपने नित्यधामको पधारे थे ( वन० ८४ । ७०७१ ) । लोमशजीका युधिष्ठिरको इनका चरित्र सुनाना ( वन ० ९९ । ४१–७१ । ) । हनुमान् जीद्वारा भीमसेन के प्रति इनके संक्षिप्त चरित्रका वर्णन ( वन० १४८ २) । इनके पिताका नाम दशरथ, माताका नाम कौसल्या तथा पत्नीका नाम सीता था ( वन० २७४ । ६ – ९ ) । ये अपने चार भाइयोंमें ज्येष्ठ थे और बुद्धिमान् थे । अपने मनोहर रूप एवं सुन्दर स्वभावसे समस्त प्रजाको आनन्दित करते थे। सबका मन इन्हींमें रमता था। इसके सिवा ये पिता के मनमें भी आनन्द बढ़ानेवाले थे । पिताकेमनमें इन्हें युवराजपदपर अभिषिक्त करनेकी इच्छा हुई; अतः इस विषय में उन्होंने मन्त्रियों और धर्मश पुरोहितोंसे सलाह ली । सबने एक स्वरसे उनके इस समयोचित प्रस्तावका अनुमोदन किया ( वन ० २७७ । ६–८ )। श्रीरामचन्द्रजीके नेत्र सुन्दर और कुछ-कुछ लाल थे । भुजाएँ बड़ी एवं घुटनोंतक लम्बी थीं । ये मतवाले हाथीके समान मस्तानी चालसे चलते थे। इनकी ग्रीवा शङ्खके समान सुन्दर, छाती चौड़ी और सिरपर काले-काले घुँघराले बाल थे। इनकी देह दिव्य दीसिसे दमकती रहती थी । युद्धमें इनका पराक्रम देवराज इन्द्र से कम नहीं था । ये समस्त धर्मोके पारंगत विद्वान् और बृहस्पति के समान बुद्धिमान् थे । सम्पूर्ण प्रजाका इनमें अनुराग था । ये सभी विद्याओंमें प्रवीण तथा जितेन्द्रिय थे। इनका अद्भुत रूप देखकर शत्रुओंके भी नेत्र और मन लुभा जाते थे। ये दुष्टोंका दमन करने में समर्थ, धर्मात्माओंके संरक्षक, धैर्यवान्, दुर्धर्ष, विजयी तथा अपराजित थे । कौसल्यानन्दन श्रीरामको देखकर पिता दशरथके मनमें बड़ी प्रसन्नता होती थी ( वन० २७७ । ९–१३ ) । मन्थरा के बहकानेसे कैकेयीका राजा दशरथ से भरत के राज्याभिषेक और श्रीरामके वनवासका वर माँगना ( वन० २७७ । १६ – २६ ) । पिताके सत्यकी रक्षा के लिये इनका लक्ष्मण और सीता के साथ वन-गमन ( वन० २७७ । २८-२९ ) । इनके वियोगमें राजा दशरथका देहत्याग ( वन० २७७ । ३० ) । श्रीराम-लक्ष्मणके वनमें चले जानेसे कैकेयीका अयोध्या के राज्यको निष्कण्टक मानकर उसे भरतके हाथोंमें Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only राम (रामचन्द्र ) सौंपना । भरतका कैकेयीको फटकारकर भाई श्रीरामका अनुसरण करना और उन्हें लौटा लानेकी इच्छासे ऋषियों, ब्राह्मणों तथा नगर और जनपदके लोगोंके साथ चित्रकूट जाकर श्रीरामका दर्शन करना ( वन० २७७ । ११३८ ) । श्रीरामकी आज्ञासे भरतका वहाँसे लौटना और इनकी चरण पादुकाओंको आगे रखकर नन्दिग्राम में रहते हुए राज्य की देख-भाल करना ( वन० २७७ । (३९ ) । नगर और जनपदके लोगोंके पुनरागमन की आशङ्कासे इनका घोर वनमें प्रवेश करके शरभंग मुनिके आश्रमपर जाना, वहाँ इनकी शरभंग मुनिसे भेंट और उनका सत्कार करके इनका दण्डकारण्यमें गोदावरीके तटपर जाकर रहना ( वन० २७७ । ४०-४१ ) । इनका शूर्पणखाके कारण जनस्थान निवासी खरके साथ महान् वैर ठन जाना ( वन० २७७ । ४२ ) । वहाँ इनके द्वारा तपस्वी मुनियोंकी रक्षाके लिये खर-दूषण आदि चौदह सहस्र राक्षसों का वध ( वन० २७७ । ४४ ) । श्रीरामके भयसे ही गोकर्णतीर्थमें मारीचकी तपस्या ( वन० २७७ । ५६ ) । मारीचका रावणको श्रीरामसे भिड़नेका निषेध करना और श्रीरामको ही अपने संन्यासीपनका कारण बताना ( वन० २७८ । ६–८ ) । मारीचका मृगरूप धारण करके सीताके सामने जाना, सीताका उसे मार लानेके लिये श्रीरामको प्रेरित करना और सीताका प्रिय करनेके लिये लक्ष्मणको उनकी रक्षामें नियुक्त करके श्रीरामका धनुष-बाण ले उस मृगके पीछे जाना ( वन० २७८ । १७ – २० ) । श्रीरामद्वारा मृगरूपधारी मारीचको पहचानकर उसका वध ( वन० २७८ । २१-२२ ) । रावणद्वारा इनकी पत्नी सीताका अपहरण ( वन० २७८ । ४२-४४ ) । श्रीरामका सीताको अकेली छोड़कर चले आनेके कारण लक्ष्मणको कोसना और आश्रमकी ओर शीघ्रतापूर्वक जाना । मार्ग में पर्वताकार जटायुको गिरा देख उन्हें राक्षस समझकर लक्ष्मणसहित श्रीरामका धनुष खींचकर उनपर धावा करना और उनके द्वारा अपना परिचय देनेपर उनके निकट जा उनकी दुर्दशा को प्रत्यक्ष देखना, 'श्रीसीताको छुड़ानेके लिये युद्ध करते समय मैं रावणके हाथसे मारा गया हूँ और वह दक्षिण दिशाको गया है ' - यह संकेतसे बताकर जटायुका श्रीरामके सामने ही प्राण त्याग करना । इनके द्वारा जटायुका अन्त्येष्टि- संस्कार ( वन० २७९ । १४ – २४ ) । इनके द्वारा कबन्धकी बायीं भुजाका छेदन ( वन० २७९ । ३६-३७ ) । कबन्धका विश्वावसु गन्धर्वके रूपमें परिणत हो श्रीरामको अपना परिचय देना और पंपा सरोवर के निकट ऋष्यमूक पर्वतपर निवास करनेवाले सुग्रीवके साथ मैत्री स्थापित करनेकी सलाह देकर उसका वहाँसे अन्त

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