Book Title: Mahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Author(s): Vasudevsharan Agarwal
Publisher: Vasudevsharan Agarwal

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Page 329
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ३२५ ) बुत्र ( वृत्रासुर ) वृत्र ( वृत्रासुर ) - कश्यपपत्नी दनायुके गर्भ से उत्पन्न एक असुर (आदि० ६५ । ३३ ) । यह राजा मणिमान्के रूपमें इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुआ था ( आदि० ६७ । ४४ ) । इस महान् असुर के मस्तक पर प्रहार करनेसे वज्रके दस बड़े और सौ छोटे टुकड़े हो गये थे ( आदि० १६९ । ५० ) । वृत्रासुरको देवताओंपर चढ़ाई ( वन० १०० । ४ )। त्वष्टाकी अभिचाराग्निसे इसकी उत्पत्ति ( उद्योग ० ९।४८ ) । इसका इन्द्रको अपना ग्रास बना लेना (उद्योग०९ । ५२ ) । महर्षियोंके समझाने से इन्द्र के साथ शर्तपूर्वक संधि करना ( उद्योग० १० । २७–३१ ) । इसका शुक्राचार्य के प्रश्नका उत्तर देना ( शान्ति० २७९ । १३ – ३१ ) । सनत्कुमारजी के उपदेशका समर्थन करते हुए इसका परमधामको प्राप्त करना ( शान्ति० २८० । ५७ - ५९ ) । इन्द्रके साथ इसका युद्ध (शान्ति० २८१ । १३ – २१ ) । इन्द्रके वज्रप्रहार से इसके मारे जानेका वर्णन, जब वृत्रासुर ज्वरसे पीड़ित होकर जॅभाई लेने लगा, उसी समय इन्द्रने वज्रका प्रहार किया और वह प्राण त्यागकर विष्णुलोकको चला गया (वन० १०१ । १५; उद्योग० १० । ३०६ शान्ति० २८२ । ९; शान्ति० २८३ । ५९-६० ) । इसके पञ्च भूतको ग्रस्त करते हुए इन्द्रके शरीर में प्रवेश करने और इन्द्रद्वारा मारे जानेका वर्णन ( आश्व० ११ । ७-१९)। महाभारत में आये हुए वृत्रासुरके नाम-असुर, असुरश्रेष्ठ, असुरेन्द्र, दैत्य, दैत्यपति, देस्येन्द्र, दानव, दानवेन्द्र, दितिज, सुरारि, त्वाष्ट्र, विश्वात्मा आदि । वृद्धकन्या - महर्षि कुणिगर्गकी पुत्री, जो बालब्रह्मचारिणी थी । इसकी घोर तपस्या ( शल्य० ५२ । ५ - १० ) । नारदजीके कहने से इसका शृङ्गवान् के साथ आधा पुण्य प्रदान करने की प्रतिज्ञापूर्वक अपना विवाह करना ( शल्य ० ५२ । १२-१७ ) । महर्षि शृङ्गवान् के साथ एक रात रहकर और उन्हें अपनी तपस्याका आधा पुण्य प्रदान करके इसका स्वर्गगमन ( शल्य० ५२ । १८ - २१ ) । जाते समय उसने अपने स्थानको तीर्थ घोषित किया और उसका फल इस प्रकार बताया- 'जो अपने चित्तको एकाग्र कर इस तीर्थ में स्नान और देवतर्पण करके एक रात निवास करेगा, उसे अट्ठावन वर्षोंतक विधिपूर्वक ब्रह्मचर्य पालन करनेका फल प्राप्त होगा' ( शल्य० ५२ । २१-२२ ) । वृद्धक्षत्र - (१) ये सिन्धुराज जयद्रथके पिता थे ( वन० २६४ । ६ ) । जयद्रथके जन्म समय में आकाशवाणीद्वारा उसकी मृत्युका समाचार सुनकर इनका चिन्तित होना और अपने जाति- भाइयोंको बुलाकर उनके सामने 'मेरे Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नृषक पुत्रका सिर जो पृथ्वीपर गिरायेगा, उसके मस्तक के सैकड़ों टुकड़े हो जायँगे ।' यो जयद्रथको वरदान देना । पुनः अपने पुत्रको राजसिंहासन पर बैठाकर स्वयं तपके लिये प्रस्थान करना ( द्रोण० १४६ । १०६ - ११३ ) । अर्जुनके बाणद्वारा जयद्रथके मस्तकका इनकी गोदमै गिरना और मस्तकका इनकी गोद से पृथ्वीपर गिरने से इनकी मृत्यु ( द्रोण० १४६ । १२२ – १३० ) । ( २ ) एक पूरुवंशी राजा, जो पाण्डवपक्षका योद्धा था । इसका अश्वत्थामाके साथ युद्ध और उसके द्वारा वध ( द्रोण० २०० । ७३-८४ ) । वृद्धक्षेम - त्रिगर्तदेश के राजा, जो सुशर्मा पिता थे ( आदि० १८५ । ९ ) । वृद्धगार्ग्य - एक तपस्वी महर्षि, जिन्होंने पितरोंसे नीलवृषभ छोड़ने, वर्षा ऋतु में दीपदान करने और अमावास्या को तिलमिश्रित जलद्वारा तर्पण करनेसे प्राप्त होनेवाले फलके विषयमें प्रश्न किया और पितरोंने इन्हें उसका वर्णन सुनाया ( अनु० १२५ । ७७–८३ ) । वृद्धशर्मा - आयुके द्वारा स्वर्भानुकुमारीके गर्भ से उत्पन्न • पाँच पुत्रोंमेंसे एक, शेष चारके नाम हैं - नहुष, रजि • और अनेना ( आदि ० ७५ | २५-२६ ) । वृद्धिका - वृक्षवर गिरे हुए शिवजीके वीर्यसे उत्पन्न हुई नारियाँ, जो मनुष्यका मांस भक्षण करनेवाली हैं। संतानकी इच्छा रखनेवाले लोगोंको इनके सामने मस्तक झुकाना चाहिये (वन० २३१ । १६ ) । वृन्दारक - ( १ ) धृतराष्ट्रके सौ पुत्रोंमेंसे एक ( आदि० ११६ । ८ ) । भाइयोंके साथ इसका भीमसेनपर आक्रमण और उनके द्वारा वध (द्रोण० १२७ । ३३ – ६ १ ) । (२) कौरवपक्षका एक योद्धा, जो अभिमन्युद्वारा मारा गया (द्रोण० ४७ । १२ ) । वृष - ( १ ) स्कन्दका एक सैनिक ( शल्य० ४५ | ६४ ) । (२) एक दैत्य, दानव या राक्षस, जो पूर्वकालमें पृथ्वीका शासक था; परंतु कालवश इसे छोड़कर चल बसा ( शान्ति० २२७ । ५१ ) । For Private And Personal Use Only वृषक - ( १ ) गान्धारराज सुबलका पुत्र, जो द्रौपदीस्वयंवर में गया था ( आदि० १८५ । ५-६ ) । यह युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें भी उपस्थित था ( सभा० ३४ । ७ ) । दुर्योधन की सेना भीष्मद्वारा यह दुर्धर्ष रथी बताया गया है ( उद्योग० १६८ । १ ) । अर्जुनके साथ युद्ध करते समय यह उनके हाथसे मारा गया ( द्रोण० ३० । २ – ११) । व्यासजीके आह्वान करनेपर गङ्गाजलसे इसका प्रकट होना (आश्रम० ३२ । १२) । (२) एक राजकुमार, जो कलिङ्ग ( कलिङ्गराजकुमार )

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