Book Title: Mahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Author(s): Vasudevsharan Agarwal
Publisher: Vasudevsharan Agarwal

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Page 334
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यास (३३. ) न्यास व्यास-एक महर्षि, जिनको नमस्कार कर लेनेके पश्चात् जय ( महाभारत एवं इतिहास-पुराण आदि) के पाठका विधान है। इन्हें कृष्णद्वैपायन कहते हैं (आदि०१मालाचरण ) । राजर्षि जनमेजयके सर्पसत्रमें वैशम्पायनद्वारा श्रीकृष्णद्वैपायनकथित महाभारतकी विचित्र, विविध एवं पुण्य- मयी कथाएँ सुनायी गयी थीं (आदि० ३।९-१)। इनकी बनायी हुई महाभारतसंहिता सब शास्त्रोंके अभिप्रायके अनुकूल वेदार्थोंसे भूषित तथा चारों वेदोंके भावोंसे संयुक्त है (आदि०१।१७-२१)। हिमालयकी पवित्र तलहटीमें पर्वतीय गुफाके भीतर स्नान आदिसे पवित्र हो कुशासनपर *ठकर ध्यानगेगमें स्थित हो इन्होंने धर्मपूर्वक महाभारत इतिहासके स्वरूपका विचार करते हुए ज्ञानदृष्टिद्वारा आदिसे अन्ततक सब कुछ प्रत्यक्षकी भाँति देखा (आदि०१।२८ के बाद दा. पाठ, २९-१९)। इन्होंने तपस्या एवं ब्रह्मचर्यकी शक्ति से सनातन वेदका विस्तार करके लोकपावन पवित्र इतिहासकी रचना की (आदि. १।५४)। ये पराशर मुनिके पुत्र और द्वैपायन नामसे प्रसिद्ध हैं । उत्तम प्रतधारी, निग्रहानुग्रहममर्थ एवं सर्वज्ञ। इन्होंने महाभारतकी रचना करके यह विचार किया कि अब मै शिष्यों को इस अन्धका अध्ययन कैसे कराऊँ। इनके इस विचारको जानकर लोकगुरु भगवान् ब्रह्मा लोककल्याणकी कामनासे स्वयं इनके आश्रमपर पधारे । इन्होंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके उन्हें श्रेष्ठ आसनपर बैठाया। उनकी परिक्रमा की और उनके आसनके पास ही ये हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फिर ब्रह्माजीकी आशासे बैठकर प्रसन्नतापूर्वक बोले--- भगवन् ! मैंने एक महाकाव्यकी रचना की है । इसमें सम्पूर्णवेदोंका गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रोका सार संकलित हुआ है। परंतु इसके लिये कोई लेखक नहीं मिलता ।' ब्रह्माजीने इनके काव्यकी प्रशंसा करके इन्हें गणेश-स्मरणकी आशा दी और स्वयं अपने धामको चले गये (आदि. १।। ५५-७४ )। इन्होंने गणेशजीका स्मरण किया और वे आ गये । व्यासजीने उनसे लेखक बननेकी प्रार्थना की। उन्होंने कहा, 'यदि लिखते समय मेरी लेखनी क्षणभर भी न सके तो मैं लेखक हो सकता हूँ।' व्यासजीने कहा- ऐसा ही होगा; किंतु आप भी बिना समझे एक अक्षर भी न लिखें। कहते हैं, इन्होंने महाभारतमें आठ हजार आठ सौ पलोक ऐसे रचे हैं, जिनका अर्थ ये तथा शुकदेवजी ही ठीक-ठीक समझते हैं । गणेशजी सर्वज्ञ होनेपर भी जब क्षणभर ऐसे श्लोकोंपर विचार करने लगते तबतक व्यासजी और भी बहुत-से श्लोकोकी रचना कर डालते थे (आदि । ७५-८३)। इन्होंने माता सत्यवती तथा परम ज्ञानी गनापुत्र भीष्मकी आज्ञासे विचित्रवीर्यकी पत्नियोंके गर्भसे तीन अग्नियोंके समान तीन तेजस्वी पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम थे-धृतराष्ट्रपाण्नु और विदुर । इन सबके परलोकवासी हो जानेके बाद व्यासजीने मनुष्यलोक में महाभारतका प्रवचन किया। जनमेजय तथा सहस्रो ब्राह्मणों के प्रश्न करनेपर उन्होंने अपने शिष्य वैशम्पायनको आशा दी थी कि तुम इन्हें महा- - भारतकी कथा सुनाओ (आदि० १ । ८४-९९)। इन्होंने उपाख्यानोसहित जो आद्यभारत या महाभारत बनाया था। वह एक लाख श्लोकोंका है। फिर इन्होंने उपाख्यानभागको छोड़कर चौबीस हजार श्लोकोंकी एक संहिता बनायी, जिसे विद्वान् पुरुष भारत' कहते हैं। इन्होंने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेवको महाभारत ग्रन्धका अध्ययन कराया । फिर दूसरे-दूसरे सुयोग्य शिष्योंको इसका उपदेश दिया । तत्पश्चात् भगवान् व्यासने साठ लाख श्लोकोंकी दूसरी संहिता बनायी। उसके तीस लाख लोक देवलोकमें समादृत हो रहे हैं । पितृलोकमें पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोकमें चौदह लाख लोकोंका पाट होता है। शेष रहे एक लाख श्लोक | उन्हींको आद्य भारत या महाभारत कहते हैं। मनुष्यलोकर्मे ये ही प्रतिष्ठित हैं। देवताओंको देवर्षि नारदने, पितरोंको असित देवलने, गन्धर्वोको शुकदेवजीने और मनुष्योंको वैशम्पायनजीने महाभारतसंहिता सुनायी थी ( आदि०१।१०१-१०१)। पुत्र और शिष्योसहित भगवान् वेदव्यास जनमेजयके सर्पयशमें सदस्य बने थे ( आदि० ५३ । ७-१०)। आस्तीकने जनमेजयके यज्ञको सत्यवतीनन्दन व्यासके यशके समान बताया (आदि० ५५ । )। यज्ञकर्मसे अवकाश मिलनेपर व्यासदेवजी अति विचित्र महाभारतकी कथा सुनाया करते थे ( आदि. १९ । ५)। इन्हें 'सत्यवती' अथवा 'काली'ने कन्यावस्थामें ही पराशर मुनिसे यमुनाजीके द्वीपमें उत्पन्न किया था। ये पाण्डवोंके पितामह थे । इन्होंने जन्म लेते ही अपनी इच्छासे शरीरको बढ़ा लिया था। इनको स्वतः ही अङ्गों और इतिहासोसहित सम्पूर्ण वेदोका तथा परमात्मतत्त्वका ज्ञान प्राप्त हो गया था। ये वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं । इन्होंने एक ही वेदको चार भागोंमें विभक्त किया है । ब्रह्मर्षि व्यासजी परब्रह्म और अपरब्रह्मके ज्ञाता, कवि (त्रिकालदर्शी), सत्यव्रतपरायण तथा परम पवित्र हैं। इन्होंने ही शान्तनुकी संतानपरम्पराका विस्तार करनेके लिये धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुरको जन्म दिया था। ये जनमेजयके यज्ञमण्डपमें पधारे। राजा जनमेजयने सेवकों सहित उठकर इनकी अगवानी की। इन्हें सोनेके सिंहासनपर बिठाकर इनका पूजन किया और कुशलप्रश्न के पश्चात् इनसे महाभारत-युद्धका वृत्तान्त पूछा । तब इन्होंने अपने पास बैठे हुए शिष्य वैशम्पायनको वह सारा प्रसंग सुनानेकी आज्ञा दी (आदि०६०।१-२२)। वैशम्पायनने गुरुदेव ब्यासको नमस्कार करके कथा प्रारम्भ की For Private And Personal Use Only

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