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वसिष्ठ (वशिष्ठ)
( २९९ )
वसिष्ठ ( वशिष्ठ)
लिये तपतीका वरण, सूर्यदेवका इन्हें संवरणके लिये अपनी कन्याका दान और तपतीको साथ लेकर इनका राजाके समीप आगमन (आदि. १७२ । २०-२८)। इनकी आज्ञासे राजाका तपतीके साथ विधिवत् विवाह करके उसके साथ पर्वतपर विहार करना (आदि. १७२ । ३२-३४ ) । अर्जुनके पूछनेपर गन्धर्वका । उन्हें वसिष्ठजीका परिचय देना-ये ब्रह्माजीके मानसपुत्र हैं, अरुन्धतीदेवीके पति हैं। देवदुर्जय काम और क्रोध नामक दोनों शत्रु इनकी तपस्यासे सदाके लिये पराभूत हो इनके चरण दबाते रहे हैं। इन्द्रियोंको वशमें कर लेनेके कारण ये विशिष्ठ' कहलाते हैं (आदि. १७।। १-६)। विश्वामित्रके अपराधसे मनमें क्रोध धारण करते हुए भी इन उदारबुद्धि महर्षिने कुशिक-वंशका मूलोच्छेद नहीं किया। सौ पुत्रोंके मारे जानेसे संतप्त हो
| लेनेकी शक्ति रखते हुए भी इन्होंने असमर्थकी भाँति सब कुछ सह लिया, किंतु विश्वामित्रका विनाश करनेके लिये कोई क्रूरतापूर्ण कर्म नहीं किया । ये अपने मरे हुए पुत्रोंको यमलोकसे भी वापस ला सकते थे, फिर भी यमराजकी मर्यादाका उल्लङ्घन करनेको उद्यत नहीं हुए (आदि० १७१।७-९) । इन्हींको पुरोहितरूपमें पाकर इक्ष्वाकुवंशी नरेशोंने इस पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त किया था ( आदि. १७३।१०)। इनके आश्रमपर राजा विश्वामित्रका आगमन और नन्दिनीके प्रभावसे इनके द्वारा सेना तथा मन्त्रियोसहित उनका आतिथ्यसत्कार ( आदि. १७४ । ५-१)। विश्वामित्रका इनसे नन्दिनीको माँगना और इनका उन्हें उनका सारा राज्य लेकर भी नन्दिनीको देनेसे इन्कार करना ( आदि. १७४।१६-१८)। विश्वामित्रद्वारा बलपूर्वक नन्दिनीका अपहरण होता देखकर भी इनका मौन रहना । नन्दिनीकी इनसे कातर प्रार्थना, इनका नन्दिनीको अपनी ही शक्तिसे आश्रमपर रहनेकी आशा देना और इनकी आशा पाते ही नन्दिनीका म्लेच्छोंकी सृष्टि करके उनके द्वारा विश्वामित्रकी सेनाको मार भगाना ( आदि. १७४ । २१-४३ )। विश्वामित्रका इनके ऊपर नाना प्रकार अस्त्र-शस्त्र और दिव्यास्त्रोका प्रयोग करना तथा इनका अपनी बाँसकी छड़ीसे ही उनके सारे अस्त्र-शस्त्रोंको भस्मीभूत कर देना (आदि. १७४ । ४३ के बाद दा. पाठ, पृष्ठ ५१५)। शक्तिके शापसे राक्षसभावको प्राप्त हुए कल्माषपादद्वारा विश्वामित्र की प्रेरणा पाकर इनके पुत्रोंका भक्षण और इनका शोक (आदि. १७५ । १-४३)। महर्षिने विश्वामित्रका विनाश न करके स्वयं ही शरीर त्याग देनेका विचार कर लिया । ये मेरुपर्वतके शिखरसे कूद पड़े।
किंतु पत्थरकी शिला भी इनके लिये रूईके ढेरके समान हो गयी । ये धधकते हुए दावानलमें घुस गये; परंतु वह आग इनके लिये शीतल हो गयी । ये गलेमें भारी पत्थर बाँधकर समुद्र के जलमें कूद पड़े; परंतु समुद्रने अपनी लहरोंसे ढकेलकर इन्हें किनारे डाल दिया (आदि० १७५ । ४४-४९)। इन्होंने देखा, वर्षाका समय है । एक नदी नूतन जलसे लबालब भरी है और तटवर्ती वृक्षोंको बहाये लिये जाती है। सोचा इसीके जलमे डूब जाऊँ । अपने शरीरको पाशोंद्वारा अच्छी तरह बाँधकर ये उस महानदीके जलमें कूद पड़े, परंतु उस नदीने इनके बन्धन काटकर इन्हें स्थलमें पहुंचा दिया । उसके द्वारा विपाश (बन्धनरहित) होनेके कारण इन्होंने उसका नाम विपाशा रख दिया। इसके बाद हिमालयसे निकली हुई एक दूसरी भयंकर नदीकी प्रखर धारामें इन्होंने अपने आपको डाल दिया। परंत इनके गिरते ही वह शत-शत धाराओंमें फूटकर द्रत-गतिसे इधर-उधर भाग चली । इसलिये शतद्' नामसे विख्यात हुई (भादि. १७१।१-९)। इनका अपनी पुत्रवधू अदृश्यन्तीके गर्भस्थ बालकके मुखसे वेदाध्ययनकी ध्वनि सुनकर और शक्तिके गर्भस्थ बालककी सूचना पाकर अपनी वंशपरम्परा सुरक्षित जान मृत्युके संकल्पसे विरत होना ( आदि. १७६ । १२-१६ )। राक्षसके भयसे डरी हुई अदृश्यन्तीको आश्वासन दे इनका कल्माषपादका शापसे उद्धार करना तथा राजाकी प्रार्थनासे इनका रानी मदयन्तीके गर्भसे अश्मक नामक पुत्रको उत्पन्न करना ( आदि. १७६ । १७-४७) । भृगुवंशी और्वकी कथा सुनाकर इनके द्वारा पराशरके जगदिनाशक संकल्पका निवारण तथा पराशरके राक्षससत्रकी समाप्ति (आदि. १७७।११ से आदि० १८० । २॥ तक)। ये ब्रह्माजीकी सभामें विराजमान होते हैं ( समा.
१ । १९)। इनके द्वारा श्रीरामका राज्याभिषेक (वन० २९१ । ६६) । शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्णकी मार्गमें इनके द्वारा परिक्रमा करना (उद्योग० ८३ । २७)। इनका द्रोणाचार्यके पास आकर उनसे युद्ध बंद करनेको कहना (द्रोण. १९०। ३३--४०)। कुरुक्षेत्रमें वसिष्ठजीके आवाहन करनेपर सरस्वती नदी 'ओघवती' के नामसे प्रकट हुई थी (शल्य. ३८ । २७-२९ )। वसिष्ठापवाह तीर्थक प्रसंगमें विश्वामित्रका क्रोध और वसिष्ठजीकी सहनशीलता (शल्य. १२ अध्याय )। ये शरशय्यापर पड़े हुए भीष्मको देखनेके लिये गये थे (शान्ति०४७।७)। वसिष्ठजी मुचुकुन्दके पुरोहित थे और कुबेर एवं योंके साथ युद्ध छिड़ जानेपर इन्होंने तपस्यासे मुचुकुन्दके
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