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नारद
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( १८१ )
अध्याय
पास जाकर सेमलवृक्षकी बात कहना ( शान्ति० १५६ । २-४ ) । भगवान् विष्णुसे कृपा-याचना ( शान्ति० २०७ | ४६ के बाद ) । भगवान् विष्णुका स्तवन ( शान्ति० २०९ । दाक्षिणात्य पाठ | इन्द्रके साथ लक्ष्मीका दर्शन (शान्ति० २२८ । ११६ ) । पुत्रशोकसे दुखी अकम्पनको समझाना ( शान्ति० २५६ से २५८ तक ) । महर्षि असितदेवलसे सृष्टिविषयक प्रश्न ( शान्ति० २७५ । ३ ) । महर्षि समनसे उनकी शोकहीनताका कारण पूछना ( शान्ति ० २८६ । ३-४ ) । गालवमुनिको श्रेयका उपदेश देना ( शान्ति ० २८७ । १२ -- ५९ ) । व्यासजीके पास आना और उनकी उदासीका कारण पूछना ( शान्ति० ३२८ ।
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१२–१५ ) | व्यासजीको पुत्रके साथ वेदपाठ करनेको कहना ( शान्ति० ३२८ । २०-२१ ) । शुकदेवजीको वैराग्य और ज्ञान आदि विविध विषयका उपदेश ( शान्ति • अध्याय ३२९ से ३३१ तक ) । नरनारायण के समक्ष सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बातकी जिज्ञासा ( शान्ति० ३३४ । २५-२७ ) । श्वेतद्वीपका दर्शन और वहाँ के निवासियोंका वर्णन ( शान्ति० ३३५ । ९-१२ ) । दो सौ नामद्वारा भगवान्की स्तुति ( शान्ति ० ३३८ अध्याय ) । श्वेतद्वीपमें भगवान् का दर्शन ( शान्ति ० ३३९ ! १–१० ) । श्वेतद्वीपसे लौटकर नर-नारायण के पास जाना और उनके समक्ष वहाँके दृश्यका वर्णन करना ( शान्ति० ३४३ । ४७-६६ ) । मार्कण्डेयजीके विविध प्रश्नों का उत्तर देना ( अनु० २२ | दाक्षिणात्य पाठ ) । श्रीकृष्ण के पूछने पर पूजनीय पुरुषोंके लक्षण और उनके आदर-सत्कार से होनेवाले लाभका वर्णन करना ( अनु० ३१ । ५-३५ ) । पञ्चचूड़ा अप्सरासे स्त्रियोंके स्वभावके विषय में प्रश्न ( अनु० ३८ । ६ ) । भीष्मजीसे अन्नदान की महिमाका वर्णन ( अनु० ६३ । ५ – ४२ ) । देवकी देवीको विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न वस्तुओंके दानका महत्त्व बताना ( अनु० ६४ । ५- ३५ ) । अगस्त्यजीके कमलोंको चोरी होनेपर शपथ खाना ( अनु० ९४ । ३० ) । पुण्डरीकको श्रेयके लिये भगवान् नारायणकी आराधनाका उपदेश देना ( अनु० १२४ । दाक्षिणात्य पाठ ) । इनके द्वारा हिमालय पर्वतपर भूतगणसहित शिवजीकी शोभाका वर्णन ( अनु० १४० अध्याय ) । संवर्तको पुरोहित बनाने के लिये मरुत्तको सलाह देना ( आश्व० ६ । १८-१९ ) । मरुत्तको संवर्तका पता बताना ( आश्व० ६ । २० - २६ ) | महर्षि देवमतके प्रश्नों का उत्तर देना ( आश्व० २४ अध्याय ) । युधिष्ठिर के अश्वमेध यज्ञमें इनको उपस्थिति ( आश्व० ८८ । ३९ ) । नारदजीका प्राचीन ऋषियोंकी तपः सिद्धि
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नारायण
का दृष्टान्त देकर धृतराष्ट्रकी तपस्याविषयक श्रद्धाको बढ़ाना और शतयूपके पूछनेपर धृतराष्ट्रको मिलनेवाली गतिका वर्णन करना ( आश्रम ० २० अध्याय ) । इनका युधिष्ठिरके समक्ष वनमें कुन्ती, गान्धारी और धृतराष्ट्रके दावानलसे दग्ध होनेका समाचार बताना ( आश्रम० ३७ | १–३८ ) । धृतराष्ट्र लौकिक अग्निसे नहीं, अपनी ही अग्निसे दग्ध हुए हैं—यह युधिष्ठिर को बताना और उनके लिये जलाञ्जलि प्रदान करनेकी आज्ञा देना ( आश्रम ० ३९ । १--९ ) । साम्ब के पेट से भूसल पैदा होने का शाप देनेवाले ऋषियों में ये भी थे ( मीसल० १ । १५ - २२ ) । इनके द्वारा युधिष्ठिरकी प्रशंसा ( महाप्र० ३ । २६ --२९ ) । महाभारतमें आये हुए नारदजीके नाम - ब्रह्मर्षि, देवि परमेष्ठिज, परमेष्ठी, परमेष्ठिपुत्र और सुरर्षि आदि । ( २ ) विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेसे एक ( अनु० ४ । ५३)।
नारदागमनपर्व - आश्रमवासिकपर्वका एक अवान्तर पर्व ( अध्याय ३७ से ३९ तक ) ।
नारदी - विश्वामित्र के ब्रह्मवादी पुत्रोंमेंसे एक ( अनु० ४ । ५९ ) ।
नाराच - बाणविशेष ( आदि० १३८ । ६ ) | ( सीधे बाणको नाराच कहते हैं । उसका अग्रभाग तीखा होता है । )
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नारायण भगवान् विष्णु तथा उनके अवतारभूत धर्मपुत्र नारायण, जो अपने भाई नरके साथ बदरिकाश्रममें सुवर्णमयरथपर बैठकर तपस्या करते हैं । ये स्वायम्भुव मन्वन्तर में धर्मके यहाँ चार स्वरूपों में अवतीर्ण हुए थे— नर नारायण, हरि और कृष्ण ( शान्ति० ३३४ । ९-१२ ) । इनका देवताओंको समुद्र मन्थनका आदेश
आदि० १७ । ११ - १३ ) । मोहिनीरूप धारण करके देवताओंको अमृत पिलाना ( आदि० १८ । ४५-४६ के बाद दा० पाठ ) । इनके द्वारा राहुके मस्तकका उच्छेद तथा देवासुर संग्राम में असुरोंका संहार ( आदि० १९ । ५–१०, १९२४ | इन्होंने गरुड़को अपना वाहन बनाया और ध्वजमें स्थान दिया ( आदि० ३३ | १३-१७ ) । इनके कृष्ण और श्वेत केश श्रीकृष्ण और बलराम के रूपमें प्रकट हुए थे ( आदि० १९६ । ३२३३ ) | ये ब्रह्माजीकी समामें विराजमान होते हैं। ( सभा० ११ । ५२-५३ ) । भीष्मद्वारा इनके स्वरूप एवं महिमाका वर्णन तथा इनके द्वारा मधु कैटभ दैत्यके वध प्रसंगका वर्णन ( सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७८१ से ७८४ तक ) । इनके वाराह, नृसिंह