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मेध्या
( २६० )
मेरु
विदीर्ण करा दिया गया; अतः उसकी मृत्यु हो गयी (वन. १३५। ५३) । (२) एक ब्राह्मण-बालक, जिसने पिताको शानका उपदेश दिया (शान्ति० १७५। ९-३०)। इसके द्वारा पिताको शरीर और संसारकी
अनित्यताका उपदेश (शान्ति० ३७७ अध्याय)। मेध्या-पश्चिम दिशाका एक पुण्यमय तीर्थ (वन० ८९ । १५)। यह नदी अग्निकी उत्यत्तिका स्थान मानी गयी है (वन. २२२ । २३)। सायं प्रातःस्मरणीय नदियों में इसका भी नाम आया है (अनु. १६५ । २६)। मेनका-स्वर्गलोककी एक श्रेष्ठ अप्सरा, जिसने गन्धर्वराज विश्वावसुसे गर्भ धारण किया और स्थूलकेश ऋषिके पास अपनी पुत्री प्रमदराको जन्म देकर वहीं त्याग दिया (आदि०८।६-७) । इसके गर्भसे विश्वामित्रद्वारा शकुन्तलाकी उत्पत्ति हुई (आदि०७२ । २-९)। यह छः प्रधान अप्सराओंमें गिनी गयी है ( आदि. .४ । ६८-१९)। अर्जुनके जन्मोत्सवमें इसने गान किया था (आदि. १२२६४)। यह कुबेरकी सभामें उपस्थित होती है (सभा० १०।१०)। इसने अर्जुनके स्वागत के लिये इन्द्रसभामें नृत्य किया था ( वन० ४३ ।
२९)। मेना-भारतवर्षकी एक नदी, जिसका जल भारतवासी पीते हैं।
(भीम० १।२३)। मेरु-सुवर्णमय शिखरोंसे सुशोभित एक दिव्य पर्वत, जो
ऊपरसे नीचेतक सोनेका ही माना जाता है, यह तेजका महान् पुञ्ज है और अपने शिखरोंसे सूर्यकी प्रभाको भी तिरस्कृत किये देता है । इसपर देवता और गन्धर्व निवास करते हैं । इसका कोई माप नहीं है । मेरुपर सब ओर भयंकर सर्प भरे पड़े हुए हैं। दिव्य ओषधियाँ इसे प्रकाशित करती रहती हैं। यह महान् पर्वत अपनी ऊँचाईसे स्वर्गलोकको घेरकर खड़ा है। वहाँ किसी समय देवताओंने अमृत-प्राप्तिके लिये परामर्श किया था, इस पर्वतपर भगवान् नारायणने ब्रह्माजीसे कहा था कि देवता
और असुर मिलकर महासागरका मन्थन करें, इससे अमृत प्रकट होगा (आदि. १७।५-१३)। इसी मेरु पर्वतके पार्श्वभागमें वसिष्ठजीका आश्रम है ( भादि० ९९।१)। यह दिव्य पर्वत अपने चिन्मय स्वरूपसे कुबेरकी सभामें उपस्थित हो उनकी उपासना करता है (सभा० १।३३) । यह पर्वत इलावृतखण्डके मध्यभागमें स्थित है। मेरुके चारों ओर मण्डलाकार इलाकृतवर्ष बसा हुआ है। दिव्य सुवर्णमय महामेरु गिरिमें चार प्रकारके रंग दिखायी पड़ते हैं। यहाँतक पहुँचना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है । इसकी
लंबाई एक लाख योजन है। इसके दक्षिण भागमें विशाल जम्बूवृक्ष है; जिसके कारण इस विशाल द्वीपको जम्बूद्वीप कहते हैं (सभा० २८ । ६ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ७४०)। अत्यन्त प्रकाशमान महामेरु पर्वत उत्तर दिशाको उद्भासित करता हआ खड़ा है । इसपर ब्रह्मवेत्ताओंकी ही पहुँच हो सकती है । इसी पर्वतपर ब्रह्माजीकी सभा है, जहाँ समस्त प्राणियोंकी सृष्टि करते हुए ब्रह्माजी निवास करते हैं । ब्रह्माजीके मानस पुत्रोंका निवासस्थान भी मेरु पर्वत ही है । वसिष्ठ आदि सप्तर्षि भी यही उदित और प्रतिष्ठित होते हैं । मेरुका उत्तम शिखर रजोगुणसे रहित है। इसपर आत्मतृप्त देवता भोंके साथ पितामह ब्रह्मा रहते हैं । यहाँ ब्रह्मलोकसे भी ऊपर भगवान् नारायणका उत्तम स्थान प्रकाशित होता है। परमात्मा विष्णुका यह धाम सूर्य और अग्निसे भी अधिक तेजस्वी है तथा अपनी ही प्रभासे प्रकाशित होता है । पर्व दिशामें मेरु पर्वतपर ही भगवान् नारायणका स्थान सुशोभित होता है। यहाँ यत्नशील ज्ञानी महान्माओंकी ही पहुँच हो सकती है । उस नारायणधाममें ब्रह्मर्षियोंकी भी गति नहीं है, फिर महर्षियोंकी तो बात ही क्या है । भक्तिके प्रभावसे ही यत्नशील महात्मा यहाँ भगवान् नारायणको प्राप्त होते हैं । यहाँ जाकर मनुष्य फिर इस लोकमें नहीं लौटते हैं। यह परमेश्वरका नित्य अविनाशी और अविकारी स्थान है। नक्षत्रोंसहित सूर्य और चन्द्रमा प्रतिदिन निश्चल मेरुगिरिकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं । अस्ताचलको पहुँचकर संध्याकालकी सीमाको लाँघकर भगवान् सूर्य उत्तर दिशाका आश्रय लेते हैं। फिर मेरुपर्वतका अनुसरण करके उत्तर दिशाकी सीमातक पहुँचकर समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहनेवाले सूर्य पुनः पूर्वाभिमुख होकर चलते हैं (वन० १६३।१२-४२)। माल्यवान् और गन्धमादन-इन दोनों पर्वतोंके बीचमें मण्डलाकार सुवर्णमय मेरुपर्वत है। इसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है। नीचे भी चौरासी हजार योजनतक पृथ्वीके भीतर घुसा हुआ है। इसके पार्श्व भागमें चार द्वीप हैं-भद्राश्व, केतुमाल, जम्बूद्वीप और उत्तरकुरु । इस पर्वतके शिखरपर ब्रह्मा, रुद्र और इन्द्र एकत्र हो नाना प्रकारके यशोंका अनुष्ठान करते हैं। उस समय तुम्बुरु, नारद, विश्वावस आदि गन्धर्व यहाँ आकर इसकी स्तुति करते हैं। महात्मा सप्तर्षिगण तथा प्रजापति कश्यप प्रत्येक पर्वके दिन इस पर्वतपर पधारते हैं । दैत्योसहित शुक्राचार्य मेरु पर्वतके ही शिखरपर निवास करते हैं। यहाँके सब रन और रत्नमय पर्वत उन्हींके अधिकारमें है । भगवान् कुबेर उन्हसि धनका चतुर्थ भाग प्राप्त करके उसका सदुपयोग करते हैं। सुमेरु पर्वतके उत्तर भागमें दिव्य एवं
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