Book Title: Mahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Author(s): Vasudevsharan Agarwal
Publisher: Vasudevsharan Agarwal

View full book text
Previous | Next

Page 243
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भृगुतीर्थ ( २३९ ) भोजा जगत्की उत्पत्ति और विभिन्न तत्त्वोंका वर्णन करना (वन० ८५ । ९१-९२)। इस महान् पर्वतकी भृगुतुङ्ग(शान्ति. १८२ अध्याय)। आकाशसे अन्य चार आश्रमके नामसे भी प्रसिद्धि है। यहाँ भृगुजीने त स्थूल भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन (शान्ति. १८३ अध्याय)। की थी (वन० ९० । २३)। भृगुतुङ्गमें एक 'महाद' पञ्चमहाभूतोंके गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन (शान्ति० १८४ नामक तीर्थ या सरोवर है । जो लोभका त्याग करके यहाँ अध्याय)। शरीरके भीतर जठरानल तथा प्राण-अपान आदि स्नान करता और तीन राततक निराहार रहता है, वह वायुओंकी स्थिति आदिका वर्णन (शान्ति० १८५ अध्याय)। ब्रह्महत्याके पापसे मुक्त हो जाता है (अनु० २५ । १४जीवकी सत्ता तथा नित्यताको नाना प्रकारकी युक्तियोंसे १९)। सिद्ध करना (शान्ति० १८७ अध्याय ) । वर्णविभाग- भेडी-स्कन्द की अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६।१३)। पर्वक मनुष्यकी तथा समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिका वर्णन भेरीस्वना-स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका(शल्य०४६।२६)। (शान्ति. १८८ अध्याय)। चारों वर्गों के अलग-अलग कर्माका और सदाचारका वर्णन तथा वैराग्यसे परब्रह्मकी भैरव-धृतराष्ट्रवंशी एक नाग, जो सर्पसत्रमें दग्ध हो गया प्राप्तिका निरूपण (शान्ति. १८९ अध्याय)। सत्यकी (आदि० ५७ । १७)। महिमा, असत्यके दोष तथा लोक और परलोकके सुख- भोगवती-(१) नागलोक ( आदि०२०६। ५१समा० दुःखका विवेचन (शान्ति० १९० अध्याय ) । ब्रह्मचर्य ३८ । २९ के बाद दाक्षिणात्य पाठ)। ( २) पातालऔर गार्हस्थ्य आश्रमके धर्मोंका वर्णन (शान्ति० १९१ लोकमें स्थित गङ्गा (सभा० ३८ । २९ के बाद दाक्षिअध्याय)। वानप्रस्थ और संन्यास धोका वर्णन तथा णात्य पाठ, पृष्ठ ८१४) । प्रयागमें वासुकि नागका तीर्थहिमालयके उत्तरपार्श्वमें स्थित उत्कृष्ट लोककी विलक्षणता विशेष, जो गङ्गामें ही है, इसमें स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञएवं महत्ताका प्रतिपादन (शान्ति० १९२ अध्याय)। काफल मिलता है (वन० ८५।८६;उद्योग० १८६ ॥२७)। इनका हिमवान्को रत्नोंका भण्डार न होनेका शाप देना (३) सरस्वती नदीका नामान्तर (वन २४ । २०)। (शान्ति० ३४२ । ६२)। इनके द्वारा राजा वीतहव्यको (४) स्कन्दकी अनुचरी एक मातृका (शल्य० ४६८)। शरण देकर ब्राह्मणत्व प्रदान करना (अनु०३० । ५७- भोगवान-एक पर्वत, जिसे भीमसेनने पूर्व-दिग्विजयके समय ५८)।ये अग्निकी ज्वालासे उत्पन्न हुए थे; अतः जीता था (सभा० ३०। १२)। इनका नाम 'भृगु' पड़ा (अनु० ८५। १०५.१०६)। अगस्त्यजीके कमलोकी चोरी होनेपर इनका शपथ करना भोज-( १ ) एक वंश, जो यदुकुलके अन्तर्गत है (आदि० २१७ । ८)। (२) मार्तिकावत देशके (अनु. ९३।१६)। अगस्त्यजीसे नहुषको गिरानेका एक राजा, जो द्रौपदीके स्वयंवरमें पधारे थे ( आदि. उपाय पूछना (अनु० ९९ । १५)। इनका अगस्त्यजीको नहुषके पतनका उपाय बताना (अनु० ९९ । २२ १८५ । ६)। ये युधिष्ठिरकी सभाके सभासद् थे (सभा० ४ । २६)। कौरव-पक्षसे युद्ध करते हुए २८) । इनके द्वारा नहुषको शाप ( अनु० १०० । २४२५)। नहुषके प्रार्थना करनेपर उनके शापका उद्धार अभिमन्युद्वारा मारे गये (द्रोण. ४८1८)। इन्होंने बताना ( अनु. १००।३०)। कलिङ्गराज चित्राङ्गदकी कन्याके स्वयंवरमें भी पदार्पण भृगुतीर्थ-महर्षियोद्वारा सेवित एक तीर्थ । यहाँ स्नान करके किया था (शान्ति० ४ । ७) । (३) एक यदुवंशी नरेश, जिन्हें महाराज उशीनरसे खड्ग की प्राप्ति हुई थी परशुरामजीने श्रीरामजीद्वारा अपहृत अपने तेजको पुनः (शान्ति. १६६ । ७९)।(इन्हीसे यादवोंमें भोजप्राप्त कर लिया था। राजा युधिष्ठिरने भी अपने भाइयोंसहित यहाँ स्नान-तर्पण किया, जिससे उनका रूप अत्यन्त वंशकी परम्परा प्रचलित हुई थी।) तेजस्वी हो गया और वे शत्रुओंके लिये परम दुर्धर्ष हो भोजकट-विदर्भदेशकी राजधानी, जिसे सहदेवने जीता था गये (वन० ९९ । ३४-३८)। (सभा० ३३।११-१२) । रुक्मिणी-हरणके समय भृगतक-एक प्राचीन पर्वत, जहाँ राजा ययातिने अपनी श्रीकृष्णके साथ युद्ध करके जहाँ रुक्मी पराजित हुआ था। पनियोंके साथ तपस्या की थी (आदि.०५। ५७)। वहीं उसने इस नये नगरको बसाया था ( उद्योग तीर्थयात्राके अवसरपर अर्जुनका यहाँ आगमन हुआ १५८ । १४-१५)। (इसके पहले इस राज्यकी राजथा (आदि० २११।२)। यहाँ शाकाहारी होकर एक धानी कुण्डिनपुरमें थी।) मास निवास करनेसे अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है भोजा-सौवीरराजकी सर्वाङ्गसुन्दरी कमनीया कन्या, जिसे (वन० ८३ । ५.)। यहाँ उपवास करनेसे मनुष्य अपने सात्यकिने अपनी रानी बनानेके लिये हर लिया था आगे-पीछेकी सात-सात पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है (द्रोण. १०।३३)। For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414