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कृतश्रम
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( ७८ )
कृतश्रम - युधिष्ठिरकी सभा में बैठनेवाले एक महर्षि ( सभा० ४ । १४ ) । इनको वानप्रस्थधर्मके पालनसे स्वर्गलोककी प्राप्ति हुई ( शान्ति० २४४ । १८ ) । कृति - ( १ ) एक पुण्यात्मा एवं बहुश्रुत राजर्षि, जो यमराजकी सभाको सुशोभित करते हैं ( सभा० ८ । ९ ) । (२) एक विश्वेदेव (अनु० ९१ । ३५) । (३) भगवान् विष्णुका एक नाम ( अनु० १४९ । २२ ) । कृती - शूकरदेशका एक राजा, जिसने युधिष्ठिरको सौगजरत्न
भेंट किये थे ( सभा० ५२ । २५ ) ।
कृत्तिका - ( १ ) एक तीर्थ, यहाँकी यात्रासे अतिरात्र यागका फल मिलता है ( वन० ८४ । ५१) । (२) कृत्तिकाएँ छः हैं, इनका स्कन्दसे अपनेको माता स्वीकार करनेका अनुरोध ( वन० २३० । ५) । इन्हें नक्षत्रमण्डल स्थानकी प्राप्ति ( वन० २३० | ११ ) | कृत्तिका नक्षत्र में दान देनेका फल ( अनु० ६४ । ५ ) । कृत्तिकाङ्गारक- एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके एक पक्षतक निराहार रहनेवाला मनुष्य निष्पाप होकर स्वर्गलोकमें जाता है (अनु० २५ | २२–२६ ) । कृत्तिकाश्रम - एक तीर्थ, जहाँ स्नान करके पितरोंका तर्पण और महादेवजीको संतुष्ट करनेवाला पुरुष पापमुक्त हो स्वर्ग में जाता है (अनु० २५ | २५ ) । कृत्या - ( १ ) दैत्योंद्वारा आभिचारिक यशसे उत्पन्न की हुई एक राक्षसी, जो आमरण उपवासके लिये बैठे हुए दुर्योधनको वनसे उठाकर रसातलमें ले गयी थी ( वन० २५२ । २१–२९ ) । ( २ ) एक नदी, जिसका जल भारतीय प्रजा पीती है ( भीष्म० ९ । १८ ) । कृत्रिम - एक प्रकारका अबन्धुदायादपुत्र ( मैं आपका पुत्र हूँ' यों कहकर जो स्वयं समीप आया हो ) ( आदि० ११९ । ३४ ) ।
कृप - एक प्राचीन राजा, जिन्होंने कभी मांस नहीं खाया था ( अनु० ११५ । ६४ ) ।
कृपाचार्य - किसी समय गौतमगोत्रीय शरद्वान्का वीर्य सरकंडेके समूहपर गिरा और दो भागोंमें बँट गया, उसीसे एक पुत्र और एक कन्याका जन्म हुआ, कन्याका नाम कृपी हुआ और पुत्र महाबली कृपके नामसे प्रसिद्ध हुआ (आदि० ६३ । १०७ ) । ये रुद्रगणके अंशावतार और अत्यन्त पुरुषार्थी थे ( आदि० ६७ । ७७ >)1 'जानपदी' नामक अप्सराके दर्शनसे सरकंडेपर स्खलित हुए महर्षि शरद्वान्के दो भागों में बँटे हुए वीर्यसे एक पुत्र और एक कन्याकी उत्पत्ति ( आदि० १२९ ॥ ६ - १४ ) । वनमें शिकारके लिये आये हुए महाराज
कृपाचार्य
शान्तनुका इन्हें देखना और कृपाके वशीभूत हो घर लाकर इनका पालन-पोषण एवं समस्त संस्कार करना ( आदि० १२९ । १५-१८ ) । इनका 'कृप' नाम होनेका कारण ( आदि ० १२९ । २० ) । शरद्वान्का इनको इनके गोत्र आदिका गुप्तरूपसे परिचय देकर समस्त शास्त्रोका उपदेश करना ( आदि० १२९ । २१-२२ ) । ये धनुर्वेद के परमाचार्य हो गये ( आदि० १२९ । २२ ) । इनसे कौरवों- पाण्डवों तथा यादवोंका धनुर्वेद पढ़ना ( आदि० १२९ । २३) । रङ्गभूमिमें अर्जुनपर आक्षेप करते समय इनका कर्णसे उसके कुलका परिचय पूछना ( आदि० १३५ । ३२ ) । ये युधिष्ठिरके राजसूय यज्ञमें उपस्थित थे ( सभा० ३४ । ८)। धनकी देख-रेख और दक्षिणा बाँटने के कामपर नियुक्त किये गये थे ( सभा० ३५ । ७ | इनका पाण्डवों अन्वेषण के लिये सलाह देना ( विराट० २९ । १ - १४ ) । कर्णको फटकारते हुए युद्धके विषयमें अपना मत प्रकट करना ( विराट० ४९ अ०में ) । अर्जुनद्वारा घायल होनेपर कौरवका इन्हें अन्यत्र हटा ले जाना ( विराट० ५७ । ४३ ) । दुर्योधनसे दो मासमें पाण्डव - सेनाको नष्ट करनेकी अपनी शक्तिका कथन ( विराट० १९३ । १९ ) । युधिष्ठिरको आज्ञा देकर अपनेको अवध्य ब ( भीष्म० ४३ । ७०-७५ ) । प्रथम दिनके युद्धमें बृहत्क्षत्र के साथ इनका द्वन्द्वयुद्ध ( भीष्म० ४५ । । चेकितानद्वारा इनका मूच्छित होना ( भीष्म० ८४ । ३१ ) । सात्यकि को घायल करना ( भीष्म० १०१ । ४०-४१ ) । सहदेवके साथ द्वन्द्व-युद्ध करना ( भीष्म० ११०।१२-१३; भीष्म ० १११ । २८-३३ ) । भीमसेन और अर्जुनके साथ युद्ध ( भीष्म० ११३, ११४ अध्याय ) । धृष्टकेतुके साथ युद्ध ( द्रोण० १४ । ३३-३४ )। वार्धक्षेमके साथ युद्ध ( द्रोण० २५ । ५१-५२ ) । अभिमन्युके पार्श्वरक्षकका वध कर देना ( द्रोण० ४८ ॥ ३२ ) । इनके ध्वजका वर्णन ( द्रोण० १०५ । १४१६ ) । अर्जुनके साथ युद्ध ( द्रोण० १४५ अ० ) । अर्जुनके साथ युद्ध में मूच्छित होना ( द्रोण० १४७ । ९ ) । कर्णको फटकारना ( द्रोण० १५८ । १३ – २३; ३३- ४७ ) । अश्वत्थामासे दुर्योधनको अर्जुनके साथ युद्धके लिये जानेसे रोकनेको कहना ( द्रोण० १५९ ॥ ७७-८२ ) । इनके द्वारा शिखण्डीकी पराजय ( द्रोण ० १६९ । ३२ ) । द्रोणाचार्यके मारे जानेपर युद्धस्थलसे भागना ( द्रोण० १९३ । १२ ) । अश्वत्थामासे द्रोणवधका समाचार बताना ( द्रोण० १९३ । ३७-६७ ) । सात्यकिद्वारा पराजय ( द्रोण० २०० । ५३ ) । इनके
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