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त्रिस्रोतसी
( १३४ )
दक्ष
त्रिस्रोतसी-एक नदी, जो वरुण-सभामें उपस्थित रहकर दक्ष-(१) ब्रह्माजीके दाहिने अँगूठेसे उत्पन्न एक महर्षि,
वरुणदेवकी उपासना करती है (सभा०९ । २३)। जो महातपस्वी एवं प्रजापति थे । इनकी पत्नी ब्रह्माजीके श्रुटि-स्कन्दकी अनुचरी मातृका ( शल्य० ४६ । १७)। बाँयें अँगूठेसे उत्पन्न हुई थी। उनके गर्भसे दक्षने त्रेता-कृतयुग या सत्ययुगके बाद द्वितीय युग । हनुमानजी
पचास कन्याएँ उत्पन्न की थीं ( आदि० ६६ । द्वारा इसके धर्मका वर्णन-त्रेतामें यज्ञकर्मका आरम्भ
१०.११)। ये ही कल्पान्तरमें दस प्रचेताओंद्वारा होता है, धर्मके एक पादका हास हो जाता है और
मारिपाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे; अतः प्राचेतस दक्ष भगवान् विष्णुका वर्ण लाल हो जाता है ( वन०
कहलाते हैं । इनसे समस्त प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं, इसीसे १४९ । २३-२६ )। मार्कण्डेयजीद्वारा त्रेताका वर्णन ।
ये सम्पूर्ण लोकके पितामह हैं (आदि. ७५। ५)। त्रेतायुग तीन हजार दिव्य वर्षोंका है, इसकी संध्या
इनके समान ही गुणशीलवाले इनके एकहजार पुत्र उत्पन्न और संध्यांशके भी उतने ही सौ दिव्य वर्ष होते हैं।
हुए। उन्हें नारदजीने मोक्षशास्त्र एवं सांख्यशानका
उपदेश दे दिया, जिससे वे विरक्त होकर घरसे निकल गये। इस प्रकार यह युग छत्तीस सौ दिव्य वर्षोंका होता है (वन० १८८ । २३)।
तब इन्होंने पुत्रिकाधर्मके अनुसार दौहित्रोंको अपना त्रैवलि-एक ऋषि, जो युधिष्ठिरकी सभामें विराजमान होते
पुत्र माननेका संकल्प लेकर पचास कन्याएँ उत्पन्न की
( आदि०७५। ६-८)। इन्होंने इनमेंसे दस कन्याएँ थे (सभा० ४ । १३)।
धर्मको, तेरह कश्यपको और कालका संचालन करने में ध्यक्ष-एक जनपद, जहाँके राजा युधिष्ठिरके पास भेंट लेकर ।
नियुक्त नक्षत्रस्वरूपा सत्ताईम कन्याएँ चन्द्रमाको ब्याह आये थे। द्वारपर रोक दिये जाने के कारण खड़े थे ( सभा.
दी (आदि० ७५ । ८)। ये अर्जुनके जन्मकालमें ५१ । १७)।
कुन्तीदेवीके स्थानपर गये थे (आदि० १२२॥ ५२)। त्र्यम्बक-ग्यारह रुद्रोंमेंसे एक (शान्ति० २०८ । १९)। ये भगवान् ब्रह्माकी सभामें रहकर उनकी उपासना करते त्वष्टा-बारह आदित्योंमेंसे एक । कश्यपके द्वारा अदितिके हैं (सभा० ११ । १८)। इन्होंने सरस्वतीके तटपर
गर्भसे उत्पन्न ( आदि० ६५ । १६) । खाण्डववनके यज्ञ किया और उस स्थानके लिये एक वर दिया कि दाहके समय इन्द्रकी ओरसे युद्धके लिये इनका आगमन यहाँ मरनेवालेको स्वर्ग प्राप्त होगा। वही विनशन तीर्थ
और अस्त्रके रूपमें पर्वतको उठाना (आदि० २२६ । है (बन० १३० । २)। ये ब्रह्माजीके मानसपुत्रोंमें ३४)। ये इन्द्र की सभामें विराजमान होते हैं (सभा० सातवें हैं और भेरुपर्वतपर रहते हैं (वन० १६३ । ७ । १४) । इनकी पुत्री कशेरुका नरकासुरद्वारा
१४)। इन्होंने सत्ताईस कन्याएँ सोमको ब्याह दी अपहरण (सभा० ३८ । २९ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ
थीं, इनके पति चन्द्रमा केवल रोहिणी' को ही प्यार करते ८०४-८०५)। प्रजापति त्वष्टा (विश्वकर्मा ) के द्वारा थे अतः अन्य पत्रियोंने पिता दक्षके पास जाकर इस बातकी वज्रका निर्माण (वन० १००।२४) । नल नामक शिकायत की, तब दक्षने चन्द्रमासे कहा-सोम ! तुम वानर इनका पुत्र था ( बन० २८३ । ४१)। इन्द्र अपनी सभी पत्नियोंके प्रति समानतापूर्ण बर्ताव करो; द्वारा अपने पुत्र त्रिशिराके मारे जानेसे इनका इन्द्रपर जिससे तुम्हें महान् पाप न लगे ।' इसके बाद इन्होंने सब कुपित होना और वृत्रासुरको प्रकट करना (उद्योग० कन्याओंको समझाकर चन्द्रमाके यहाँ भेजा; परंतु सोमने ९४८) । त्वष्टाने अपनी तपस्यासे संतुष्ट हुए शिवजीकी __दक्षकी बात नहीं मानी । अपनी पुत्रियोंके मुखसे फिर कृपासे वृत्रासुर नामक पुत्र उत्पन्न किया (द्रोण. सोमकी शिकायत सुनकर इन्होंने उन्हें शाप देनेकी ९४ । ५४)। इनके द्वारा स्कन्दको चक्र और अनुचक धमकी दी । जब चन्द्रमाने फिर उनकी बातकी
नामक दो पार्षद-प्रदान (शल्य० ४५ । ४० )। अवहेलना कर दी, तब इन्होंने रोषपूर्वक राजयक्ष्माकी सृष्टि त्वष्टाधर-शुक्राचार्यके रौद्र कर्म करने करानेवाले दो पुत्रों से
की और वह सोमके शरीरमें प्रविष्ट हो गया (शल्य. एक (दि. ६५। ३७ )।
३५ । ४५-६२)। देवताओंके अनुरोध करनेपर इन्होंने बताया, सोम अपनी पत्नियोंके प्रति समानतापूर्ण बर्ताव
करें और सरम्वती-समुद्र-संगममें स्नान करके महादेवजीदंश-अलर्क नामक कीड़ेकी योनिमें पड़ा हुआ एक राक्षस, की आराधना करें, तब इस रोगसे मुक्त हो जायँगे।
जो परशुरामजीकी दृष्टि पड़ते ही कीट-योनिसे मुक्त हो प्रतिमास पंद्रह दिनोंतक ये प्रतिदिन क्षीण होंगे और 'गया था । परशुरामजीके पूछनेपर उसका अपनी दुर्गति- आधे मासतक निरन्तर बढ़ते रहेंगे (शल्य० ३५ । का कारण बताना (शान्ति.३।१४-१५, १९-२३)। ७३-७७)। गङ्गाद्वारमै इनके आवाहन करनेपर
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