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कुशविन्दु
( ७६ )
कृतयुग
कुशविन्दु-एक भारतीय जनपद (भीष्म० ९ । ५६)। (२) एक वनवासी ऋषि, जो सर्पविषसे मरी हुई कुशस्तम्ब-एक तीर्थ, जहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य स्वगमें
प्रमद्वराको देखनेके लिये गये थे ( आदि०८।२५)। अप्सराओंद्वारा सेवित होता है (अनु० २५ । २८)।
इन्होंने हस्तिनापुरको जाते हुए श्रीकृष्णकी मार्गमें परिक्रमा
की थी ( उद्योग० ८३ । २७)। कुशस्थली-द्वारकापुरीका प्राचीन नाम (सभा० १४।५०)।
' कुशिकाश्रम-कोशीनदीके निकटवर्ती एक तीर्थभूत आश्रमका कुशाद्य-एक भारतीय जनपद ( भीष्म० ९ । ४४)।
नाम (वन० ८४ । १३१)। कुशाम्ब-राजा उपरिचरवसुके तृतीय पुत्र, इनका दूसरा कशेशय-कुशद्वीपके छः श्रेष्ठ पर्वतोमैंसे एक (भीष्म० १२ । नाम मणिवाहन था ( आदि. ६३ । ३१)।
१०-११)। कुशावर्त-एक तीर्थ, यहाँ स्नानका फल (अनु० २५। कुसुम-धाताद्वारा स्कन्दको दिये गये पाँच पार्षदों से एक १३)।
(शल्य० ४५। ३९)। कुशिक-(१) अजमीढके वंशमें उत्पन्न जल के वंशज कुसुम्भि-द्वारकाके समीपवर्ती एक वन (सभा०३८ । २९ वल्लभके पुत्र (आदि. ९५। ३३, भीष्म०९।८ के बाद पृष्ठ ८१३, कालम १)। अनु० ४।५)। एक स्थानपर इन्हें जह्नवंशज बला- कुस्तुम्वुरु-कुबेरकी सभाका एक पिशाच (सभा० १.। काश्वका पुत्र कहा गया है ( शान्ति० ४९ । ३)। १६)। इनकी पुत्र-प्राप्तिके लिये तपस्या (शान्ति. ४९ : ४)। कहन-सौवीर देशका एकराजकुमार, जो जयद्रथका अनुगामी इन्द्रका पुत्ररूपमें जन्म (शान्ति. ४९ । ५-६)। था (वन. २६५।११)। इनके यहाँ च्यवनका आगमन तथा रहनेकी इच्छा बताना कुहर-कलिङ्गदेशका एक राजाजो क्रोधवश नामवाले (शान्ति० ५२ । ९-१०)। भार्यासहित इनके द्वारा दैत्योंके अंशसे उत्पन्न हुआ था (आदि० ६७ । ६५)। च्यवनका सत्कार तथा उन्हें सर्वस्व अर्पण (शान्ति०५२।
कुहुर-एक कश्यपवंशी नाग ( उद्योग० १०३ । १५)। १३-१८)। इनका च्यवनको घरमें ले जाकर ठहराना, शय्या आदि देना और सेवाके लिये प्रतिज्ञा करना (शान्तिः कुहू-महर्षि अङ्गिराकी आठवीं पुत्री (वन० २१८।८)। ५२ । २३.२४ ) । पत्नीसहित राजाका निराहार रहकर
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यह स्कन्दके जन्म-समयमें आयी थी (शल्य०४५। १३)। इक्कीस दिनोंतक सोये हुए च्यवनके पैर दबाना कूर्चामुख-विश्वामित्रके ब्रह्मवादी पुत्रों से एक ( अनु० (शान्ति० ५२ । ३४-३५)। च्यवनके सहसा चले ४ । ५३ )। जानेसे इनकी चिन्ता और पुनः उन्हें शय्यापर विराज- कूर्म-एक प्रमुख नाग, जो कद्रूका पुत्र है (आदि० ६५ । मान देख आश्चर्य और उनकी आज्ञासे पुनः उतने ही ४१)। दिनोंतक सोये हुए मुनिकी चरणसेवा (शान्ति० ५३। कूष्माण्डक-एक प्रमुख नाग ( भादि० ३५ । ११)। २-७)। मुनिके प्रतिकूल आचरणसे भी राजा-रानीका कृकणेयु-पूरुके तीसरे पुत्र । रौद्राश्व के द्वारा मिश्रकेशी अप्सराके क्रोध न करना (शान्ति. ५३ । ८-२४)। इन राज- गर्भसे उत्पन्न दस पुत्रोंमेंसे एक (आदि० ९४।१०)। दम्पतिका रथमें जुतकर कोड़ोंसे पीटा जाना और अन्त- कृत-एक विश्वेदेव ( अनु० ९१ । ३१)। में मुनिकी कृपासे नवयौवनसम्पन्न एवं स्वस्थ होना।
कृतक्षण-विदेहदेशके एक राजा, जो युधिष्ठिरकी सभामें (शान्ति० ५३ । २७-६३) । च्यवन मुनिके वर माँग
विराजते थे (सभा० ४ । २७)। इन्होंने राजा युधिष्ठिरनेके लिये कहनेपर संतोष प्रकट करके नगरको वापस
को चौदह हजार घोड़े भेंटमें दिये थे (सभा० १५। . आना (अनु. ५३ । ५९-६५)। दूसरे दिन मुनिके
के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ८६१, कालम २)। पास जाकर अद्भुत स्वर्गीय दृश्य देखना (अनु. ५४ । २-२५)। रानीसे मुनिकी प्रशंसा करना ( अनु० ५४। कृतचेता-एक प्राचीन ऋषि, जो अजातशत्रु युधिष्ठिरका
च्यवन वर माँगने लिये कोपर विशेष आदर करते थे (वन० २६ । २२)। संतोष प्रकट करना ( अनु० ५४ । ३८-४२) । च्यवन कृतबन्धु-एक प्राचीन नरेश ( आदि० १ । २३८)। मुनिसे अपने यहाँ रहनेका कारण और परीक्षाके क्लेशोंके कृतयग-हनुमानजीद्वारा इस युगके धर्मका वर्णन (वन. विषयमें पूछना (अनु०५५।२-९)। च्यवनमुनिसे वर १४९ । ११-२५)। मार्कण्डेयजीद्वारा इसका वर्णन माँगना (अनु०५५।१८अनु० ५५।३५)। अपने पौत्रके (वन. १८८ । २२)। कलियुगके बाद कल्कीद्वारा ब्राह्मणत्वके विषयमें पूछना (अनु० ५५ । ३६-३७)। इसकी स्थापना (वन० १९१।१-१४)।
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