Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
( २४ २४ )
में मनुष्य स्वतन्त्र है, वह खाये या न खाये, लेकिन विष खा लेने के बाद मृत्यु से बचना उसके हाथ की बात नहीं है। यह एक रथूल उदाहरण है, क्योंकि उपचार से निर्विष भी हुआ जा सकता है, मृत्यु से बचा जा सकता है। आत्मा में भी कर्म के कर्तृत्व और भोक्तृत्व इन दोनों अवसरों पर स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य फलित होते हैं। जिनका स्पष्टीकरण नीचे करते हैं
हा आना कर्म कर में स्वतन्त्र है । वह चाहे जैसे भाग्य का निर्माण कर सकती है। कर्मों पर पूर्ण विजय प्राप्त करके शुद्ध बन कर मुक्त हो सकती है। किन्तु कभी-कभी पूर्वजनित कर्म और बाह्य निमित्त को पाकर ऐसी परतन्त्र बन जाती है कि वह जैसा चाहे वैसा कभी भी नहीं कर सकती है। जैसे कोई आत्मा सन्मार्ग पर बढ़ना चाहती है, किन्तु कर्मोदय की बलवता से उस मार्ग पर बल नहीं पाती है, फिसल जाती है। यह है आत्मा का कर्तृत्व काल में स्वातंत्र्य और पारतंत्र्य |
कर्म करने ने वाद आत्मा पराधीन कर्माधीन हो वन जाती है, ऐसा नहीं है। उस स्थिति में भी आत्मा का स्वातंत्र्य सुरक्षित है। वह चाहे तो अशुभ को शुभ में परिवर्तित कर सकती है, स्थिति और रस का हाल कर सकती है, विपाक (फलोदय) का अनुदय कर सकती है, फलोदय को अन्य रूप में परिवर्तित कर सकती है। इसमें आत्मा का स्वातंत्र्य मुखर है। परतंत्रता इस दृष्टि से है कि जिन कर्मों को ग्रहण किया है, उन्हें बिना भोगे मुक्ति नहीं होती है। भले ही सुदीर्घ काल तक भोगे जाने वाले कर्म घोड़े समय में ही भोगे जायें, किन्तु सबको भोगना ही पड़ता है ।
कर्मभोग के प्रकार
जीव द्वारा कर्म फल के भोग को कर्म की उदयावस्था कहते हैं । उदयावस्था में कर्म के शुभ या अशुभ फल का जीव द्वारा वेदन किया