Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
( २२ ) जिसका कर्ता ही नहीं वह उसका भोक्ता कैसे दो साता ' हा प्रकार कर्तृत्व और भोक्तृत्व के बारे में दृष्टिभेद से जैनदर्शन की द्विविध व्याख्या है कि वास्तव में तो आत्मा अपने ही स्वाभाविक और बैभाविक भावों का कर्ता और भोक्ता है लेकिन व्यवहार से उसे स्वकृत कर्मों के फलस्वरूप मिलने वाले सुख-दुःखादि का भोक्ता वाहा जाता है। ___इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि जैनदर्शन ईश्वर को सृष्टि का नियन्ता नहीं मानता है, अतः कर्मफल देने में भी उसका हाथ नहीं है, कर्म अपना फल स्वयं देते हैं। उनके लिए अन्य न्यायाधीशों की आवश्यकता नहीं है । जैसे शराब नशा पैदा करती है
और दूध ताकत देता है । जो मनुष्य शराब पीता है उसे बेहोशी होती है और जो दुध पीता है उसके शरीर में पुष्टता आती है। शराब या दूध पीने के बाद यह आवश्यकता नहीं रहती है कि उसका फल देने के लिए दूसरी नियामक शक्ति हो । इसी प्रकार जीव के प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक परिस्पन्द के द्वारा जो कर्म परमाणु जीवात्मा की ओर आकृष्ट होते हैं तथा रागद्वेष का निमित्त पाकर उसमें बंध जाते हैं, उन कर्म परमाणुओं में भी शराब और दूध की तरह शुभ या अशुभ करने की शक्ति रहती है जो चैतन्य के सम्बन्ध से व्यक्त होकर उस पर अपना प्रभाव दिखलाती है और उसके प्रभाव से मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है जो उसे सुखदायक और दुःखदायक होते हैं । यदि कर्म करते समय जीव के भाव अच्छे होते हैं तो बंधने वाले कर्म-परमाणुओं पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और कालान्तर में उससे अच्छा फल मिलता है तथा यदि भाव बुरे हों तो बुरा असर पड़ता है और कालान्तर में फल भी बुरा ही मिलता है।
यदि ईश्वर को फलदाता माना जाये तो जहाँ एक मनुष्य दुसरे मनुष्य का घात करता है, वहाँ घातक को दोष का भागी नहीं होना चाहिए, क्योंकि उस मनुष्य के द्वारा ईश्वर भरने वाले को मृत्यु का