Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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रूप परिणत होते हैं, उनका कर्ता स्वयं पुद्गल है, जीव उनका कर्ता। नहीं हो सकता है, जीव तो अपने भानों का कर्ता है । इसी बात को समयप्राभूत गाथा ८६.८ में स्पष्ट किया है, जिसका सारांश है
जीव तो अपने रागद्वेषादि रूप भावों को करता है किन्तु उन भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप होने के योग्य पुद्गल कर्म रूप परिणत हो जाते हैं तथा कर्म रूप परिणत हुए पुद्गल द्रव्य जब अपना फल देते हैं तो उनके निमित्त को पाकर जीव भी रागादि रूप परिणमन करता है । यद्यपि जीव और पौद्गलिक कम दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं तो भी न तो जीव पुद्गल कर्मों के गुणों का कर्ता है और न पुद्गल कर्म जीव के गुणों के का है, किन्तु परस्पर में दोनों एक दूसरे का निमित्त पाकर परिणमन करते हैं । अतः आत्मा अपने भावों का ही कर्ता है, पुद्गलकर्मकृत समस्त भावों का कर्ता नहीं है।
उक्त वाथन पर यह शंका हो सकती है कि जैनदर्शन भी सांख्यदर्शन के पुरुष की तरह यात्मा को सर्वथा अकर्ता और प्रकृति की तरह पुद्गल को ही कर्ता मानता है। किन्तु ऐसी बात नहीं है । सांत्यदर्शन का पुरुष तो सर्वथा अकता है किन्तु जैनदर्शन में आत्मा कां सर्वथा अकर्ता नहीं माना है । वह अपने स्वाभाविक भाव-ज्ञान, दर्शन, सुख शादि तथा वैभाविक भाव-रागद्वेष, मोह आदि का कर्ता है किन्तु उनके निमित्त से जो पुद्गलों में कर्म रूप परिणमन होता है। उसका वह कर्ता नहीं है । उक्त कथन का सारांश यह है कि वास्तव में नपादान-कारण को ही किसी वस्तु का कर्त्ता कहा जा सकता है तथा निमित्तकारण में जो कर्ता का व्यवहार किया जाता है, वह व्यावहारिक लौकिक दृष्टि से किया जाला है । कर्तृत्व के बारे में जो बात कही गई है, वहीं भोक्तृत्व के बारे में भी जाननी चाहिए । जो जिसका कर्ता होता है वही उसका भोक्ता हो सकता है और जो