Book Title: Karmagrantha Part 5
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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आत्मा का सम्बन्ध प्रवाह की दृष्टि से अनादि है। परन्तु यहाँ यह जानना माहिए कि क र मारमा त राम्राध स्वर्गा मृत्तिका की तरह अनादि-सान्त है । जैसे अग्नि के ताप से मृत्तिका को गलाकर स्वर्ण को विशुद्ध किया जा सकता है, वैसे ही शुभ अनुष्ठानों से कर्म के अनादि सम्बन्ध को तोड़कर आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया
आत्मा के साथ कर्मवन्ध की प्रक्रिया चार प्रकार की है-१प्रकृति बन्ध, २-स्थितिबन्ध, ३-अनुभागबन्ध, ४–प्रदेशबन्ध । ग्रहण के समय कर्मपुद्गल एकरूप होते हैं । किन्तु इन्धकाल में उनमें
आत्मा के ज्ञान, दर्शन आदि भिन्न-भिन्न गुणों को रोकने का भिन्नभिन्न स्वभाव हो जाता है । इसे प्रकृतिबन्ध फहते हैं। उनमें समय की मर्यादा का निर्धारण होना स्थितिबन्ध है | आत्मपरिणामों की तीव्रता
और मंदता के अनुरूप कर्मबन्धन में तीन रस और मंद रस का होना अनुभाग बन्ध कहलाता है और कर्म पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एकीभाव या कर्मप्रदेशों की संख्या का निर्धारण होना प्रदेशबन्ध है । प्रथम कर्मग्रन्थ में मोदक के दृष्टान्त द्वारा कर्मबन्ध के इन चारों प्रकारों को बहुत ही सुन्दर रीति से स्पष्ट किया गया है । जैसे मोदक पित्तनाशक है या कफनाशक है, यह उसके स्वभाव पर निर्भर है, वह मोदक कितने काल तक अपने स्वभाव रूप में बना रहेगा, यह उसकी स्थिति है। उसकी मधुरता या कटुता का तारतम्य रस पर अवलम्बित है और मोदक का वजन कितना है, यह उसके परमाणुओं पर निर्भर है । इस प्रकार मोदक का यह रूपक कर्मबन्धन की प्रक्रिया का ययार्थ निर्देशन कर देता है।
उक्त प्रकृतिबन्ध आदि बन्ध के चार प्रकारों में से आत्मा को योग शक्ति प्रकृति और प्रदेशबन्ध की कारण है और स्थिति एवं अनुभाग बन्ध के कारण काषायिक परिणाम हैं। कर्मबन्धन दो तरह का होता