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शायद ही कोई भाग ऐसा हो, जहाँ आपके शिष्य नहीं मिलें। अब आप कुछ वर्षोंसे वहाँ अधिष्ठाता है। भारतवर्षीय दि० जैन संघको वे वर्षों सींचते और पल्लवित करते रहे। वे एक आदर्श गुरु भी हैं ।
__ अद्भुत पारखी-पंडितजी पारखी भी अद्भुत हैं । वर्षों पूर्व आपने नवदीक्षित युवा मुनि १०८ श्री विद्यासागरजी महाराजके चरित्र पालनका किशनगढ़ (राज.) में उनके दर्शन कर जो मत व्यक्त किया था, वह आगे चलकर शतप्रतिशत सही सिद्ध हुआ। तभी लिखे आपके सम्पादकीयने मुझे उस साधक सन्तके दर्शन करने के लिए बेचैन कर दिया था। क्या इस युगमें ऐसे साधकका होना सम्भव है जो तीनों रत्नोंका धारी हो। अब तक इधर जितने साधु मेरे देखने-सुनने में आये, उनमेंसे अधिकांश या तो पर्याप्त आगम ज्ञानी नहीं हैं या भीड़-भाड़ अथवा प्रतिबन्धोंसे घिरे रहनेवाले दिगम्बरत्वके अतिरिक्त सुविधा और शोहरतके आक.क्षी। किसी किसीका तो व्याख्यान सभाके अलावा साधारण श्रावकके लिए दर्शन भी दुर्लभ । एक दिन ऐसा भी आया कि आगरेमें उस महान् साधकके दर्शन कर मैं धन्य हुआ। पंडितजीने जैसा लिखा था, वैसा ही मैंने उस साधु शिरोमणिको पाया। स्वाध्यायरत, निस्पृही और आत्मलीन रहनेवाले।
पण्डितजीका व्यक्तित्व-जयपुरमें १९७० में सम्पन्न जैन साहित्य संसदके अधिवेशनमें पंडितजीका पांडित्य और गारभीर्य छाये रहते थे। वहाँ अनेक स्थानोंसे प्रतिष्ठित प्रौढ़ और युवा जैन विद्वान् आये थे। किसी भी विषय पर बहस तो बहत होती थी, पर निर्णय तभी होता था जब पंडितजीके विचार सुननेको मिलते थे। उन्हें किसी भी तरहका आग्रह नहीं होता था, जो बात भी करते, सहज भावसे कहते, सबकी बातें और तर्क ध्यानसे सूनकर, हमारे चिन्तन पर चिन्तन कर । वहाँ एक बात महत्त्वकी अवश्य सामने आयी। राजस्थान विश्वविद्यालयके दर्शन-विभागकी गोष्ठीमें डॉ० कमलचन्द सोगानीने स्पष्ट कर दिया था कि जबतक हम आधुनिक पाश्चात्य-दर्शनका भी अध्ययन नहीं कर लेते और उसे ध्यानमें रखते हुए अपने दर्शन पर चिन्तन नहीं करते, तबतक आजकी वैचारिक दुनियाँ में हमारे ज्ञान व समाधानमें कहीं न कहीं अधूरापन रह जाता है ।
मेरा ख्याल है कि पाश्चात्य विद्वानोंका जो दार्शनिक चिन्तन है, उसका आधार तो भारतीय और श्रमण दर्शन ही है। हमारे दर्शनशास्त्रोंको लेकर ही जर्मनी, रूस, ब्रिटेन और इटली आदि देशों में बहुत काम हुआ है और हो रहा है। हमारे देशमें आकर और रहकर भी उन्होंने बहुत कुछ खोजबीन की है और हम उनके ऋणी हैं । आप देखते नहीं कि हर्मनयाकोबी जैसे विद्वानोंको उद्धरित करते हम नहीं अघाते । जून सन् १९७८ में जब मैं उज्जैन गया, तो डॉ० हरीन्द्रभूषणजीने मुझे बताया था कि जिस बारहवें अंग दृष्टिवादको हम लुप्त मानते रहे हैं, उसपर जर्मन विद्वान् डॉ० लुडविग आल्सडोर्फने 'ह्वाट वेयर दी काण्टेंट्स आफ दृष्टिवाद' नामसे तीन खण्ड लिखकर प्रकाशित भी करा दिये हैं। कैसी विचित्र बात है कि मूल आधार तो हमारा और उनका एक ही है, परन्तु अन्तर यह है कि हमारा अध्ययन और चिन्तन तो परम्परासे जो चला आ रहा है, उसीको लेकर है जब कि पाश्चात्य विद्वानोंने आधुनिक विचारक्षेत्र में वैज्ञानिक और मौलिक दृष्टिसे स्वतन्त्र रूपसे शोधपूर्ण अध्ययन और चिन्तन किया है। अतः हमे अपनी चिन्तनपद्धति पर भी चिन्तन करनेकी आवश्यकता है।
यद्यपि हमारी पण्डितजीसे बहुत समयसे प्रत्यक्ष भेंट नहीं हो पाई है, फिर भी उनके प्रति मेरे मन व मस्तिष्कमें अगाध श्रद्धा और आदरभाव बना हुआ है और मैं उनके स्वस्थ व सुखी दीर्घजीवनकी हृदयसे कामना करता हूँ।
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