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तक नगरके जैन समाजमें चर्चाका विषय बने रहे। मैं भी उनके प्रशंसकोंमें एक हो गया। इसके बाद तो इलाहाबाद, जयपुर, और अन्य स्थानोंमें उनके अनेक बार दर्शन करनेका मुझे सौभाग्य मिला।
सम्पर्कका माध्यम जैन सन्देश-सन् १९६२ में रिटायर होकर मैं आगरा आ गया और सामाजिक कार्योमें और लेख लिखनेकी मेरी प्रवृत्तियाँ फिरसे शुरू हो गई। जैन सन्देशसे अपने पुराने रिश्तेको फिरसे जोड़नेकी इच्छा हुई, तो पुरानी बातोंको याद दिलाते हुए मैंने एक दिन पण्डितजीको पत्र लिख डाला। वे उसके प्रधान सम्पादक थे और अब भी हैं। जैन सन्देशका द्वार उन्होंने मेरे लिए खोल दिया । मेरे लेख उसमें छपने लगे और वह मेरे पास आने भी लगा। इसे मैंने अपना सौभाग्य माना ।
मेरे लेख कभी-कभी लम्बे हो जाते और कभी कार्बन कापी उनके पास भेज देता। एक-दो बार मेरे लेख नहीं छपे, तो मैंने पण्डितजीको लिखा । उनका उत्तर आया कि एक तो आपके लेख लम्बे होते हैं, दूसरे वही लेख आप और जगह भी छपने भेज देते हैं। उन्होंने सलाह दी कि मैं लेखोंको लम्बा न किया करूँ । उनकी यह सलाह मुझे मार्गदर्शकके रूपमें थी और उसी रूपमें मैंने उसे लिया भी । संक्षिप्त करके भेजने पर वे लेख आगे छप गये, परन्तु उसी लेखको और जगह भी प्रकाशनार्थ भेजनेसे मैं बाज नहीं आया क्योंकि डाककी गड़बड़ीसे लेख इधर-उधर भी हो जाते हैं। कई वर्ष पूर्व एक वर्षान्तके सम्पादकीयमें लेखकोंके नाम देते हए उन्होंने मेरे नामका भी उल्लेख किया था । २१ मार्च १९६८ के सम्पादकीयमें मेरे निवेदन पर यहाँ की जैन शिक्षा संस्थाओंके संगठनकी योजनापर भी सम्पादकीय लिखनेकी कृपा की थी।
चोटीके लेखक और सम्पादक-इस प्रकार पण्डितजीके निकट आनेका और उनसे कुछ सीखनेका जैन सन्देश एक माध्यम बन गया। वे चोटीके जैन लेखकों और सम्पादकोंमें गिने जाते हैं। जिस तरहकी विशिष्ट शैली उनके बोलने की है, वैसी ही लिखने की भी है । पण्डितजीके सम्पादकीय और अन्य लेख बड़े ही गम्भीर और विद्वत्तापूर्ण होते हैं। वे जो कुछ भी लिखते हैं, सद्भावनासे निर्भीक होकर लिखते हैं। बात खरी कहते हैं बगैर लाग-लपेटके परन्तु मजी भाषामें और शिष्ट शैली में । कुछ लोग उन्हें अपमानजनक भाषामें बुरा-भला कहने में नहीं चूकते । परन्तु वे अपना सन्तुलन नहीं खोते हैं और उनका उत्तर देते हैं पर शिष्ट रूप से । वे जो भी लिखते हैं, सप्रमाण और तर्कसंगत, अनुभव और अन भतिके आधार पर । उनका ध्येय रहता है, 'कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे। तो भी न्यायमार्गसे मेरा कभी न पग डिगने पावे ।' पण्डितोंके आर्थिक संकट और अनादरको लेकर उनके हृदय में जो दर्द है, वह किसीसे छिपा नहीं है। समाजकी विघटनकारी प्रवृत्तियोंसे वे बराबर जूझते रहते हैं और सिद्धान्तकी रक्षामें जोखिम तक उठाने में नहीं हिचकते ।
अग्रणी साहित्य सेवी पत्रकारिताके साथ-साथ पण्डितजी साहित्य सृजनमें भी अग्रणी रहे हैं। आपने अनेकों उच्चकोटिकी पुस्तकों, टीकाओं और ग्रन्थोंकी रचना की है परन्तु आपकी पुस्तक 'जैन धर्म' सर्वाधिक लोकप्रिय रही है। जैनधर्मका बुनियादी ज्ञान करानेवाली यह पुस्तक अनुपम है जो अजैनोंमें भी लोकप्रिय है । सन्त विनोवाके सतत प्रयत्नसे तैयार किये गये ग्रन्थमें 'समण सुत्तं' में जो जैन गीताके नामसे विख्यात है, आपकी भूमिका मूल्यवान रही। उसका हिन्दी गद्यानुवाद करनेका श्रेय आपको ही है । जैन साहित्यका इतिहास भी आपकी बेजोड़ कृति है।
आदर्श गुरु-शिक्षाके क्षेत्रमें भी आपकी सेवायें महान् हैं । काशीका स्याद्वाद महाविद्यालय, आपके जीवनका अभिन्न अंग बन गया है । अपने जीवनका अमूल्य बहभाग खपाकर आपने उसकी जो सेवा की है, वह अमिट है । आपके बिना महाविद्यालय की और महाविद्यालयके बिना आपकी चर्चा अधूरी है। देशका
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