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* सिद्धर्षि को बुद्ध महा करुणामय प्रतीत हुए । अरिहंत केवल वीतराग प्रतीत हुए। आज भी अनेक व्यक्तियों को भगवान की वीतरागता का ख्याल है, परन्तु कारुणिकता का ख्याल नहीं है ।
अनेक व्यक्ति कहते हैं - ईसामसीह दयालू हैं । वे सबके पापों का नाश कर देते हैं ।
यह बात सर्वथा मिथ्या नहीं है, परन्तु किस प्रकार पापों का नाश होता है, यह वे समझते नहीं है । हम भी मानते है -
'एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो' हिन्दू लोग भी मानते है -
सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । . अहं त्वा सर्वपापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
- गीता भगवान की शक्ति इन पापों का नाश करते है । यह सर्व प्रथम स्वीकार करना पड़ेगा, मात्र अपनी शक्ति नहीं ।
इक्कीस-इक्कीस वक्त तक बौद्ध-दर्शन की ओर आकर्षित होने वाले सिद्धर्षि को जैन-दर्शन में स्थिर करनेवाला यह 'ललित विस्तरा' है । उन्होंने स्वयं ने ही उपमिति में कहा है -
_ नमोऽस्तु हरिभद्राय, तस्मै प्रवरसूरये ।
मदर्थं निर्मिता येन, वृत्तिललितविस्तरा ॥ इस 'ललित विस्तरा' पर पंजिका के रचयिता श्री मुनिचन्द्रसूरिजी हैं । मुनिचन्द्रसूरिजी अर्थात् वादिदेवसूरि के गुरु ।
वादिदेवसूरि ने दिगम्बराचार्य कुमुदचन्द्र को पराजित किया । इसी कारण से आज गुजरात में दिगम्बर नहीं दिखाई देते। ऐसे महावादी देवसूरि को तैयार करने वाले मुनिचन्द्रसूरिजी कैसे विद्वान होंगे ?
टीकाकार कहते हैं - गणधर रचित सूत्रों के सभी अर्थ, सभी रहस्य खोलने की मेरी शक्ति नहीं है, क्योंकि भगवान की वाणी में तो अनन्त अर्थ छिपे होते हैं । बड़े-बड़े ज्ञानी भी वे अर्थ नहीं बता सकते, क्योंकि वाणी क्रमबद्ध बोली जा सकती है, आयुष्य मर्यादित होता है ।
कहे कलापूर्णसूरि - ३ Goooooooooooooas ५)