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ये भगवान तो दादा हैं, करुणा के सागर हैं । पिता तो थप्पड़ भी लगा दें, परन्तु 'दादा' तो पौत्र को गोद में ही बिठाते हैं । हम यहां आदिनाथ भगवान को दादा ही कहते हैं न ? ।
* ऐसे भगवान की आशातना संसार बढ़ाती है, परन्तु उनकी भक्ति संसार से पार लगाती है ।
* ऐसे भगवान को याद किये बिना, उनका चैत्यवन्दन किये बिना आप पच्चक्खाण भी पार नहीं सकते, आहार भी ग्रहण नहीं कर सकते । उन भगवान की महिमा कितनी ? परन्तु हम यह समझने के लिए कदापि तैयार नहीं हैं ।
* मैं तो यहां तक कहूंगा कि यह संसार तरने के लिए भावित किया हुआ एक श्लोक ही पर्याप्त है। हम सब की वृद्धावस्था कभी न कभी तो आयेगी ही। कभी तो यह सब भूल ही जायेंगे, तब भावित किया हुआ एक श्लोक ही काम आयेगा । इसी अर्थ में ही उपा. यशोविजयजी ने कहा है -
निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः । आप चैत्यवन्दन तो करते ही हैं, पच्चक्खाण पारते ही हैं, प्रतिक्रमण आदि क्रिया करते ही हैं, व्यवस्था ही ऐसी है कि करना ही पडता है। अब इस क्रिया में उपयोग जोड़ो तो आपका जाता है क्या ? समय तो वैसे ही जाने वाला ही है। केवल आपका उपयोग वहां जोड़ने की आवश्यकता है । हम मन को वहां क्यों नहीं जोड़ते ? क्या अधिक कष्ट होता है ? हां, वहां मन को कष्ट होता है। वहां मानसिक वीर्य की आवश्यकता पड़ती है। शारीरिक वीर्य की तरह मानसिक वीर्य भी चाहिये, तो ही सूत्रों आदि में मन लगा सकते हैं । शारीरिक व्यायाम में शारीरिक कष्ट होता है, उस प्रकार मानसिक व्यायाम में भी भिन्न प्रकार का कष्ट पड़ता है ।
* सिद्धर्षि गणि बौद्ध-दर्शन का अध्ययन करने के लिए गये थे । वहां जाकर वे विचलित हो गये ।
आज भी ऐसा होता है। विपश्यना की ११ दिनों की शिविर करके आत्मानुभूति हो जाने का दावा करने वाले कम नहीं हैं । ऐसे अनेक व्यक्ति आत्मानुभूति के भ्रम में पूजा आदि सब छोड़कर पथ-भ्रष्ट होते हैं। (४0moooooooooose
कहे कलापूर्णसूरि - ३)