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'मुक्खेण जोयणाओ जोगो सव्वोवि धम्मवावारो ।'
योगविंशिका
हमारे आयोजित होने वाले अनुष्ठान महान् योग हैं, क्योंकि वे मोक्ष के साथ जोड़ते हैं । 'मोक्ष के साथ जोड़ने वाले योग होते हैं ।' इस प्रकार की योग की व्याख्या से अजैन लोग भी चकित हो जाते हैं । इस व्याख्या का कौन इनकार कर सकता है ?
पतंजलि की व्याख्या ('योगश्चित्तवृत्ति निरोधः ) में शुभ वृत्ति का भी निरोध हो गया है, अतः दोष है ।
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* किसी भी शक्ति का परिमित उपयोग होना चाहिये । शक्ति नष्ट न हों । आज ऐसे अनेक वक्ता हैं जो युवावस्था में अत्यन्त ही जोश से बोले थे । वृद्धावस्था आने पर पश्चात्ताप करते हैं । योग हमें सन्तुलित जीवन सिखाता है ।
* ध्यान करने की वस्तु नहीं है । ध्यान के लिये भूमिका उत्पन्न करनी है । भूमिका तैयार होने पर ध्यान अनायास ही उत्पन्न हो जायेगा। ध्यान के लिए अलग प्रयत्न करने की अधिक आवश्यकता नहीं है । आप केवल भूमिका बनायें, चित्त को दर्पण तुल्य बनायें । प्रभु रूप चन्द्रमा स्वयं चमकेंगे ।
* चैत्यवन्दन महान् योग है, जिसमें समस्त योगों का समावेश है । इसी लिए संस्कृत आदि सिखाने से पूर्व चैत्यवन्दन आदि भाष्य सिखाये जाते हैं ।
जो व्यक्ति यह सीखे बिना ही न्याय आदि के अध्ययन में लगे उनमें से अनेक उस मूर्ख नैयायिक जैसे बने कि जो आधारता की, आधेयता की जांच करने के लिए घी का वर्त्तन ही उल्टा कर देते हैं ।
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* हंस एवं परम हंस नामक शिष्य मुनि की अकाल मृत्यु से विचलित हो गये थे । उन्हें (हरिभद्रसूरिजी को) किसी ने कहा 'आप शिष्यों की बात छोड़ दें, ग्रन्थों का सृजन करें । आपके भीतर यह शक्ति है तो उसे प्रकट करें । इसके द्वारा महान उपकार होगा । तत्पश्चात् वे ग्रन्थ-सृजन के पीछे ऐसे लग गये कि जीवन के अन्त तक पीछे मुड़कर देखा नहीं । १४४४ ग्रन्थों की रचना करके ही रुके ।
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ॐ कहे कलापूर्णसूरि - ३